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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
अपनी मृत्यु से नहीं डरते लेकिन अज्ञानी प्राणी मृत्यु से सदा भयभीत और सशंकित रहते हैं। मृत्यु का भय भी मृत्युवत् ही है। अतएव उनकी पल-पल पर मृत्यु हो रही है और ज्ञानीजन जीवन में एक ही बार मरते हैं क्योंकि उन्हें भय नहीं होता इस अपेक्षा से अज्ञानियों का जीवन विशेष क्षणभंगुर समझना चाहिए ।
सूत्रकार ने बाल, मंद और अविजान तीन शब्द दिये हैं। जिस तरह बालक में ज्ञान नहीं होता उसी तरह जो अपने जीवन को अजर-अमर मानकर महत्व देता है वह भी ज्ञान शून्य होने से बाल है । सद् असत् का विवेक करने में कुशल न होने से मंद है और बुद्धिमंदता से परमार्थ को नहीं जानता है त विजान है ।
उक्त तीन विशेषण वाला व्यक्ति अपने क्षुद्र जीवन की चञ्चलता पर ध्यान न देकर क्रूरकर्म करने में निमग्न रहता है । हिंसक कर्म करते हुए उसे संकोच और क्षोभ नहीं होता। वह नहीं विचारता कि मैं जिन्हें पीड़ा पहुँचा रहा हूँ वे भी मेरे ही समान सुखाभिलाषी हैं और वह यह भी नहीं ध्यान करता कि मेरे इन क्रूर कर्मों का परिणाम अति भयंकर होगा और वह मुझे ही भोगना पड़ेगा । वह बिना विचारे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह तथा अठारह पापस्थानों का सेवन करता है - पुनः पुनः अधिकाधिक सेवन करता है । पाप करते समय वह श्रागा-पीछा नहीं सोचता । उसे उस पाप के दुष्परिणाम का ध्यान भी नहीं होता लेकिन उसके क्रूर कर्म जब उदय में आते हैं तो वह अत्यन्त वेदना का अनुभव करता है । वह उस दुख से मूढ़ - किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है। उसे कोई मार्ग नहीं सूझता । वह मोहान्धकार में भ्रमण करता है इसलिये उसे सन्मार्ग प्राप्त नहीं होता और वह व्याकुल होकर पुनः मोह और दुख के कारणों का ही आश्रय लेता है। अज्ञान के कारण वह भूल नहीं सुधारता और भूल को सुधारने का प्रयत्न करते हुए अधिक और अधिक भूल करता जाता है। वह दुख का शमन करना चाहता है लेकिन उसके लिए ऐसे उपायों का आश्रय लेता है जिससे दुख घटने के बजाय बढ़ जाते हैं। वह विपरीत बुद्धि के कारण दुख को शान्त करने के लिए दुख का ही सहारा लेता है। इसीका नाम अज्ञान है।
ज्ञानी प्राणी भूल करता है लेकिन वह भूल करते हुए भी उसे भूल नहीं समझता और उसके प्रति सावधान रहता है। भूल करना खराब है। लेकिन भूल करके उसके प्रति बेदरकार रहना अधिक खराब है । इसका कारण यह है कि वह भूल के स्वरूप को ही नहीं समझा । इसीका नाम श्रज्ञान । श्रज्ञानी भूल का परिणाम भोगते समय भी भूल का मूल नहीं जान पाता और अधिक भूल के चक्कर में पड़ जाता है। वैसी
भूल न
साधक भूल का स्वरूप समझा है, यह तभी जाना जा सकता है जब वह दुबारा करे । कदाचित् पूर्व-संयोगों के कारण वह भूल कर भी लेता है तो उसके परिणाम को वह खुशी के साथ सहन कर लेता है । वह मूढ़ नहीं बन जाता है। जब तक भूल का मूल बराबर नहीं समझ में श्राता तब तक भूल दूर नहीं हो सकती इतना ही नहीं लेकिन भूल को समझे बिना सुधारने का प्रयत्न करना भूलों की परम्परा बढ़ाना है । अतएव साधकों को चाहिए कि वे भूल का मूल शोधें और मूल का निवारण कर । अज्ञानी प्राणी ऐसा नहीं करते हैं इसलिए वे गर्भ, जन्म और मरण की परम्परा से नहीं छूटते और पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करते हैं ।
संसयं परिमाण संसारे परिन्नाए भवइ, संसयं परियाणश्रो संसारे अपरिन्नाए भवइ ।
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