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[आचाराङ्ग-सूत्रम्
सूत्रकार पुनः उपदेश करते है कि कर्म के स्रोत को रोक कर और मोक्ष को साध्य बनाकर साधना में आगे बढ़ना चाहिए । परिग्रह और कषाय ये विशेषतः पाप के उपादान हैं। धन, धान्य, हिरण्य, पुत्र कलत्र आदि बाह्य परिग्रह और राग-द्वेष, विषयपिपासा आदि आभ्यन्तर परिग्रह आत्मोत्थान के प्रति बन्धक हैं। इन प्रतिबन्धों को छेदकर निष्कर्मदी-मोक्षाभिलाषी बनना चाहिए । जो मोक्षाभिलाषी है वही इस संसार में बाह्य आभ्यन्तर स्रोत का छेदन करने वाला होता है। ऊपर वृत्ति-विजय के लिए कहा गया है इससे कोई साधक बाह्य त्याग की अनावश्यकता समझने की भूल न कर बैठे इसलिए यहाँ बाह्य त्याग और तपश्चरण का पुनः महत्त्व बताने के लिए सूत्र में "बहिरंग" पद दिया है।
बाह्याभ्यन्तर संयोगों का त्याग करने वाला विद्वान यह भलीभांति जानता है कि किए हुए कर्मों का फल अवश्य मिलता है। क्रिया के कर्ता को उसका फल अवश्यमेव प्राप्त होता है। इस कर्म के सिद्धान्त में किसी प्रकार का अपवाद नहीं हो सकता है। प्रत्येक क्रिया कुछ न कुछ परिणाम-दृष्ट या अदृष्ट अवश्य उत्पन्न करती है। क्रिया कभी निष्फल नहीं हो सकती। शुभकमों का शुभ परिणाम और अशुभ कर्मों का अशुभ परिणाम होता है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से बँधने वाले ज्ञानावरणीय
आदि कर्मों का तत् तत् प्रकार का फल अवश्य प्राप्त होता है। कर्मों का फल भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं हो सकता । 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' यह आगम-वाक्य है। चोर चोरी करता है और वही पुलिस अधिकारियों द्वारा पकड़ा जाकर सजा पाता है। कदाचित् पुलिस-अधिकारियों के आँखों में धूल भी झौंक सकता है लेकिन कर्म के व्यवस्थित शासन से वह नहीं बच सकता। इस भव में या अन्य भव में उसे अवश्य उसका दारुण फल भोगना पड़ता ही है । जीव चाहे जिसको उद्देश्य करके कर्म करे लेकिन उस कर्म का फल तो उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है। अगर जीव अपने कमों का फल स्वयं न भोगे तो दुनिया में अव्यवस्था फैल जायगी। कर्म कोई और करे और फल कोई और भोगे तो कृतप्रणाश और अकृत-कर्मभोग दोष आवेंगे। अर्थात् प्राणी जो शुभकर्म करता है उसका फल उसे नहीं मिलकर अन्य को मिलता है तो उसका कर्म करना व्यर्थ हुआ और दूसरे ने कर्म नहीं किए उसे फल भोगना पड़ा यह अकृतकर्मभोग हुा । इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि जीव स्वयं ही अपने कर्मों का भोक्ता है । कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं।
यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि प्रत्येक कर्म का विपाकोदय नहीं होता है क्योंकि प्रदेशोदय भी होता है और तप आदि के द्वारा बिना भोगे हुए भी कर्मों का क्षय हो जाता है। फिर भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है इस कथन की संगति कैसे ?
इस आशंका का समाधान यह है कि यहाँ सामान्य विवक्षा है। सभी प्रकारों का यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। यहाँ तो कर्म द्रव्य की अपेक्षासामान्य विवक्षा है यद्यपि प्रत्येक प्रकृति का विपाकोदय नहीं होता तदपि संसारवर्ती प्रत्येक जीव अष्ट कर्मों से युक्त है अतएव उनका फल भी मिलता है। इस अपेक्षा से इस कथन की संगति समझनी चाहिए।
विद्वान और आगमवेत्ता कर्म के अविचल सिद्धान्त को समझ कर प्रत्येक क्रिया के परिणाम पर गहन विचार करता है और प्रत्येक क्रिया को करते हुए विवेकबुद्धि से काम लेता है अतएव वह कोई क्रिया इस प्रकार की नहीं करता है जिसका बन्धन तीव्र रूप से पड़ता हो। उसका अन्तःकरण उसे तीव्रबन्धनात्मक क्रिया से बचा लेता है । वह कर्मों के कारणों से सदा दूर रहता है।
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