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[आचाराङ्ग-सूत्रम् विषय भोगों में श्रासक्त बनकर उनमें सुख का अनुभव करने के लिए आतुर बनता है। यह आतुरता, यह आसक्ति, यह मुग्धता और यह भ्रान्ति ही संसार है। विषय सुख का पिपासु प्राणी राग-द्वेष के कारण अपनी विवेक बुद्धि को खो देता है इसलिए मनोज्ञ विषयों में रागभाव और अमनोज्ञ विषयों पर द्वेष भाव आ ही जाता है। प्राशय यह है कि शब्दादि विषयों से कषाय की उत्पत्ति है और कषायों से संसार होता है। जैसा कि कहा है।
कोहो त्रमाणो अ अणिग्गहीओ, माया प्र लोहो अपवड्ढमाणा ।
चत्तारि एए कसिणा कसाया सिञ्चन्ति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ तात्पर्य यह है कि क्रोध और मानरूपी द्वष से और माया और लोभरूपी राग से अष्ट कर्मों का बन्धन होता है और ये कर्म ही संसार के मूल भूत कारण हैं। भगवद्गीता में भी इसी तत्व की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगः तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ अ. २ श्लोक ६२॥ __ अर्थात्-विषय चिन्तन से आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामविचार का उद्भव होता है और काम से क्रोध पैदा होता है । क्रोध कषाय रूप होने से संसार का मूल कारण है । अतः यह सिद्ध हुआ कि परम्परा से विषय ही संसार के मूलकारण हैं । इस संसार प्रवाह का उद्गमस्थान विषय ही है। विषयान्ध प्राणी का विवेकदीप सदा बुझा हुआ रहता है इसलिए वह अन्धों का भी राजा कहा जाता है। विषयान्ध प्राणी की अन्धता भी विचित्र प्रकार की है । अन्धा तो वस्तु के होने पर भी उसे नहीं देख सकता है परन्तु विषयान्ध तो जो चीज़ है उसे तो नहीं देखता है परन्तु जो नहीं है उसे देखता है । कैसी विचित्रता है ? तथाहि
दिवा पश्यति नो घूकः, काको नक्तं न पश्यति ।
अपूर्वः कोपि कामान्धः दिवा नक्तं न पश्यति ।। विषयी प्राणी विवेक भ्रष्ट होने से विपरीत रूप से पदार्थों को ग्रहण करता है-जो सुखरूप नहीं है ऐसे विषयों में भी सुखों का आरोप करता है-यही निम्न श्लोक में कहा गया है
दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः ।
___ सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः ॥ उत्कीर्णवर्णपदपंक्तिरिवान्यरूपा ।
सारूप्यमति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥ अर्थात्-विषयानुरागी प्राणी दुःखरूप विषयों में सुख, और सुखरूप व्रतनियमादि में दुःख मानता है । यही संसार प्रवाह का कारण है । अब बीजाकुर न्याय से यह दिखाते हैं कि जो जो मूलस्थान-अर्थात् संसार के मूल कारण कषायादि हैं वे ही विषयादि गुणरूप भी हैं । अर्थात् क्रोध मान रूप
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