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द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
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भावार्थ--स्वतः के शुभाशुभ कर्म ही शरण मरण रूप हैं यह जानकर वीर और बुद्धिमान् प्राणी संयमानुष्ठान में क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करता है । वह आर्य क्षेत्र, सुकुलोत्पत्ति और धर्मश्रवण आदि सुदुर्लभ अवसर को पहचानता है और यह जानता है कि यह यौवन और यह वय एकदम सपाटे से कूच करते चले जा रहे हैं।
विवेचन-अत्यन्त सुदुर्लभ अंगों की प्राप्ति असीम पूर्वसंचित पुण्यों का फल है। अतः मनुष्यभव, इन्द्रियों की निरोगता, आर्यक्षेत्र, आर्यकुल, और आर्यधर्म इन दुर्लभ अंगों की प्राप्ति के सुन्दर अवसर को पहिचान कर और उसकी बहुमूल्यता का अंकन करके उसका सदुपयोग करना चाहिये । यह मिला हुआ अवसर चिरस्थायी नही हैं। बारबार ऐसे अवसर प्राप्त नहीं होते हैं । अतः उसे हाथ से खो देने की महती अज्ञानता नहीं करनी चाहिये । प्राणी प्रमाद में गाफिल रहता है तो यह अवसर हाथ से निकल जाता है, क्योंकि वय, यौवन और समय बिना प्रतीक्षा किये सपाटे से चले जाते हैं। ये इस बात की परवाह नहीं करते कि इस प्राणी ने हम से लाभ उठाया या नहीं । लाख प्रयत्न करने पर भी गया हुश्रा समय, गई हुई जवानी और गया हुआ अवसर वापिस लौट कर नहीं आ सकते हैं । यौवन और जीवन की चंचलता बताते हुए कहा गया है कि:अर्थाः पादरजोपमाः गिरिनदीवेगोपमं यौवनम् ।
आयुष्यं जललोलबिन्दुचपलं फेनोपमं जावितम् ॥ धर्म यो न करोति निन्दितमतिः स्वर्गार्गलोद्घाटनम् ।
पश्चात्तापयुतो जरापरिगतः शोकाग्निना दह्यते ॥ अर्थात्-धन पांव पर उड़ी हुई धूल के समान अस्थिर है, यौवन पर्वतीय नदी के वेग के समान चंचल है। आयु तृण पर लटकते हुए जल के बिन्दु के समान चपल है, जीवन नदी में उठे हुए बुबुद के समान अनित्य है । ऐसा जानकर भी जो अज्ञानी विषयासक्त प्राणी स्वर्ग और अपवर्ग के द्वार को खोलने वाले धर्म का अाराधन नहीं करता है वह वृद्धावस्था प्राप्त होने पर शोक रूपी अग्नि में जला करता है। अतः विचक्षण धीर व्यक्ति को चाहिए कि अवसर पहिचान कर यथावसर उसका लाभ उठावे ।
सूत्रकार ने वय और यौवन दोनों का सूत्र में ग्रहण किया है जो कि मात्र वय शब्द से ही यौवन का अर्थ समझा जा सकता है। दोनों शब्द देने का प्रयोजन यह है कि सभी अवस्थाओं में यह यौवन अवस्था ही मुख्य और प्रधान है। यह बताना सूत्रकार को इष्ट है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में यह अवस्था परम साधन है । यह विशेषतः बताने के लिए दो पदों का ग्रहण किया गया है। अतः जब तक चिड़ियाँ खेत न चुग लें उसके पहिले ही सावधान होने की आवश्यकता है।
जीविए इह जे पमत्ता, से हंता, खेत्ता, भत्ता, लुपित्ता, विलुपित्ता, उद्दवेत्ता, उत्तासइत्ता अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे ।
संस्कृतच्छाया--जीविते इह ये प्रमत्ताः, स हन्ता, छेत्ता, भत्ता, लुम्पयित्ता, विलुम्पयिता, अपद्रावयिता, उत्त्रासकः, अकृतं करिष्यामि इति मन्यमानः ।
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