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द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
[१७६ भी कर सकता है । तात्पर्य यह है कि जिसे हिंसक भावना में और हिंसक कार्य में संकोच ही नहीं होता बह बड़ी से बड़ी हिंसा कर सकता है इसलिए ऐसा कहा गया है कि जो एक काय की हिंसा करता है वह व कायों की हिंसा करने वाला समझा जाता है।
जो अहिंसा-व्रत का भंय करता है वह सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-त्रत की आराधना नहीं कर सकता। इसका स्पष्टी करण इस प्रकार है । संयम अङ्गीकार करते समय अहिंसक रहने की प्रतिज्ञा की जाती है । जब हिंसा करता है तो उस समय ली हुई प्रतिज्ञा का भंग होता है इससे उसके वचन झूठे होते हैं इससे सत्य-व्रत नहीं टिक सकता । मारे जाने वाले प्राणी का उसके प्राणों पर पूरा अधिकार है और वह प्राणी अपने प्राण उस मारने वाले को नहीं सौंपता है । तो भी हिंसक बिना दिये हुए ही उसके प्राणों का हरण करता है जिससे अदत्तादान का पाप लगता है जिससे अस्तेय व्रत टिक नहीं संकता । तथैव तीर्थंकरों ने प्राणातिपात के लिए अनुज्ञा नहीं दी है उनकी आज्ञा के विपरीत ऐसा काम करना-उनकी चोरी करना है। हिंसा करता हुआ प्राणी पापों का उपार्जन करता है जिससे परिग्रह का दोष भी लगता है । परिग्रह के अन्तर्गत मैथुन और रात्रि-भोजन का भी समावेश हो जाता है। क्योंकि परिग्रह के विना इनका उपयोग नहीं हो सकता । जिसने हिंसा, असत्य, स्तेय, और परिग्रह रूप श्रास्रव द्वारों को नहीं रोके हैं वह क्या ब्रह्मचर्य पाल सकेगा ? इस प्रकार एक व्रत का भंग होने से सभी व्रतों की हानि होती है। जो अहिंसक वृत्ति वाला होता है वही सत्य का साक्षात्कार कर सकता है' वही अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत का आराधक बन सकता है।
उपयुक्त कथन से यह फलित होता है कि जो एक भी श्रास्रव-पापस्थान में निस्संकोच प्रवृत्ति कर सकता है वह सभी पापों को कर सकता है । अतः एक पापस्थान में प्रवृत्ति करने वाला इस अपेक्षा से सब आस्रवस्थानों में प्रवृत्ति करने वाला कहा जाता है।
उक्त सूत्र का यह अर्थ भी संगत ही है कि जो पापस्थानों में से एक भी पापस्थान में प्रवृत्ति करता है । वह छह जीव निकायों में प्रत्येक में पुनः पुनः जन्म लेता है अर्थात् जन्म-मरण की परम्परा बढ़ाता है।
अतएव हिंसा को पापों की बुनियाद समझकर विवेकी प्राणियों और मुमुक्षुओं को इसका सर्वप्रथम त्याग करना चाहिए।
सुहट्टी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ, सरण विप्पमारण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसि मे पाणा पव्वहिया, पडिलेहाए नो निकरणयाए, एस परिन्ना पवुच्चइ, कम्मोवसंती। . संस्कृतच्छाया—सुखार्थी लालप्यमानः स्वकीयेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति । स्वकीयेन विप्रमादेन पृथग् व्रतं ( वयः ) प्रकरोति । यस्मिन्निमे प्राणिनः प्रव्यथिताः प्रत्युपेक्ष्य नो निकरणाय एषा परिज्ञा प्रोच्यते, कर्मोपशान्तिः ।
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