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लोक-विजय नाम द्वितीय अध्ययन
-तृतीयोद्देशक(मानत्याग और भोगविरति )
द्वितीय उद्देशक में संयम में दृढ़ता रखने का उपदेश दिया गया है । संयम में अरति उत्पन्न होने के खास कारण अज्ञान लोभ, और काम हैं । पूर्व उद्देशक में लोभ कषाय का फल और उससे विरत होने का उपदेश प्रतिपादित किया है । लोभ कषाय के समान मान (अहंकार) कषाय भी अरति का कारण है। कषायों का अभाव अथवा अतिमन्दता संयम में रति और असंयम में अरति कराने में कारण भूत है । अतः इस उद्देशक में मान का त्याग करने का उपदेश दिया जाता है। प्रायः करके उच्चकुलादि के निमित्त से अहंकार की उत्पत्ति होती है अतः तन्निवारणार्थ सिद्धान्तकार फरमाते हैं:
से असई उच्चागोए, असई नीभागोए, नो हीणे, नो अइरित्ते, नोऽपीहए, इय संखाय को गोयावाई ? को माणावादी ? कसि वा एगे गिज्मा ?
संस्कृतच्छाया-सोऽसकृदुच्चैोत्रे, असकृद् नीचैर्गोत्रे, नो हानः नातिरिक्तः नो ईहेतापि (नो स्पृहयेत्) इति संख्याय को गोत्रवादी ? को मानवादी ? कास्मन्वैकस्मिन् गृध्येत् ?
शब्दार्थ-से यह जीवात्मा । असई-अनेक बार । उच्चागोए-उच्चगोत्र में उत्पन्न हुआ है। असइं अनेक बार । नीआगोए नीचगोत्र में उत्पन्न हुआ है। नो हीणे इसमें हीनता नहीं है। नो अइरित्ते=विशेषता भी नहीं है । नोऽपीहए-मदस्थानों में से एक की भी इच्छा न करे । इय संखाय-ऐसा जानकर । को गोयावादी कौन गोत्र का अभिमान करेगा ? को माणावादी-कोन गर्व करेगा ? कंसि वा=किस में । एगे-एक में । गिज्झा आसक्ति करेगा ? ।
भावार्थ हे जम्बू ! यह जीवात्मा अनेक बार उच्चगोत्र में उत्पन्न हुआ है और अनेक बार नीच गोत्र में पैदा हुआ है। इसमें किसी प्रकार की विशेषता और हीनता नहीं है ( क्योंकि भव-भ्रमण और कर्म-वर्गणा दोनों में समान हैं ) ऐसा जानकर उच्चगोत्र का अभिमान और नीचगोत्र के कारण दीनता न लानी चाहिये । और किसी प्रकार के मद के स्थानों की अभिलाषा नहीं करनी चाहिये । ऐसा जानकर कौन अपने गोत्र का गर्व करेगा, कौन अभिमान करेगा अथवा किस बात में आसक्ति करेगा ?
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