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षष्ठ अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
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विचित्रता से संयम में अरति उत्पन्न हो जाती है । इन्द्रिय-ग्राम अति प्रबल होते हैं। ये इन्द्रियाँ जरा से निमित्त को पाकर उत्तेजित हो जाती हैं और चिरसंचित संयम का नाश कर डालती हैं। बड़े बड़े ज्ञानी और उच्चस्थिति पर पहुँचे हुए व्यक्ति भी कर्मपरिणति के कारण पतित होते देखे गये हैं। कहा है:
कम्मारी गुणं घणचिक्कणाइं गरुयाई वइरसाराई।
णाणदिअंपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं णिति ॥ अर्थात्-कर्म निश्चित ही अति घन, चिकने और वज्र के समान भारी हैं । ये ज्ञानी पुरुष को भी सन्मार्ग से हटाकर उन्मार्ग में ले जाते हैं। कर्म परिणति अंति विचित्र है. लेकिन जो साधकं पाप से विरत है, चिरकाल से संयम में रत है और निरन्तर शुभ अध्यवसाय बाले होते हैं उन्हें अति उत्पन नहीं हो सकती है। संयम में उन्हें ग्लानि नहीं होती है।
वित, भिक्षु, चिरसयमी और उत्तरोत्तर प्रशस्त भाव में रेमणे करने वाले साधक को क्या अरवि उत्पन्न हो सकती है ? यह सूत्रकार ने प्रश्न उपस्थित किया है। सूत्रकार ने यह दृढ़ अनुभव व्यक्त किया है, कि ऐसे सुयोग्य साधक को कदापि ग्लानि नहीं हो सकती। सूत्रकार यह प्रतीति देते हैं कि ऐसे साधक को कोई प्रलोभन या संकट के प्रसंग स्पर्श नहीं कर सकते । स्पर्श करने पर भी उसे विचलित नहीं कर संकते । उक्त विशेषणों वाला साधक इतनी उच्चकोटि पर पहुँचा हुआ होता है कि उस पर अच्छे या बुरे प्रसंगों का असर नहीं पड़ सकता। ऐसा साधक समता की ऐसी श्रेणी पर पहुँचा हुआ होता है कि उस पर परीषह अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । परीषहों में साधक की जो वृत्ति रहती है उस पर से उसके विकास का माप. निकाला जा सकता है। जो साधक जितना आगे बढ़ा हुश्रा होता है वह उतना में संहिष्णु और अविचल होता है। जो साधक संयम में सदा जागृत है और संयम के उत्तरोत्तर कण्डकी को स्पर्शता हुश्रा प्रशस्त भावों की श्रेणी पर चढ़ता जाता है और यथाख्यात चारित्र के अभिमुख बढ़ता जाता है वह स्वयं तो ग्लानि का अनुभव करता ही नहीं है पर दूसरों को भी ग्लानि से बचाता है और उन्हें शरंण रूप होता है । इसलिए सूत्रकार ने उसे द्वीप की उपमा प्रदान की है।
द्वीप दो तरह के होते हैं-(१) द्रव्यद्वीप और (२) भाषद्वीप । दम्य.प आश्वासन द्वीप है। अर्थात् समुद्र में भटकते हुए व्यक्तियों को आश्वासन देने वाला द्वीप होता है । द्वीप को प्राप्त करके समर में भटकते हुए मल्लाह एवं यात्री शान्ति प्राप्त करते हैं इसी तरह सदा जागृत साधक, अन्य साधकों के लिए आश्वासन रूप होता है अतएव वह भी द्वीप तुल्य है । द्रव्य द्वीप भी दो प्रकार के हैं-सन्दीन और असन्दीनं । जो द्वीप पक्ष में या महीने में समुद्र में आने वाले ज्वार भाटे से ,जलव्याप्त हो जाता है वई सन्दीन द्वीप है। जो द्वीप समुद्र के जल से कभी भी व्याप्त नहीं होता वह असन्दीन द्वीप कहलाता है । जैसे सिंहल द्वीप। यहाँ अविचल रहने वाले साधक को असन्दीन द्वीप की उपमा दी गई है। जिस प्रकार असंदीन द्वीप समुद्र में जाहे जैसा तूफान श्रावे अथवा समुद्र का जल कितना ही क्यों न बढ़ जावे लेकिन वह कभी जल-मग्न नहीं होता है इसी तरह ऐसे साधक पर चाहे जैसे संकट आवें तो भी वह उन संकटों से विचलित नहीं होता है। द्वीप जिम प्रकार पानी के बीच में रहता हुश्रा भी अपना और दूसरों का रक्षण बराबर कर सकता है इसी तरह ऐसे साधक के आसपास चारों तरफ संसार के अनेक रंगराग के प्रलोभन
और संकट खड़े होते हैं तो भी जल में कमल के समान निर्लेप रहकर वे स्वयं अविचल रहते हैं और दूसरों को स्थिर करने में प्रेरक होते है।
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