________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
१५६ ]
[आचाराङ्ग-सूत्रम्
स्वसमयपरसमयज्ञः-श्रमण के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने धर्म के सिद्धान्तों, शास्त्रों और ग्रन्थों का अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त करे और दूसरों के धर्म के सिद्धान्तों का भी ज्ञान प्राप्त करे । स्वसमय और परसमय को जाने बिना सम्पूर्ण विवेक नहीं हो सकता है । अतः साधुओं को अपने और दूसरों के सिद्धान्तों का ज्ञान होना चाहिए। ताकि अवसर आने पर प्रश्न का योग्य समाधान करने की योग्यता प्राप्त हो । जैसे कि ग्रीष्मऋतु के मध्याह्न समय में घूमते हुए और पसीने से तरबतर और मलिन वस्त्र वाले साधु से कोई अनजान पूछता है कि क्या आपके मतमें सर्वजनाचीणं स्नान का विधान नहीं है ? ऐसा पूछने पर स्पसमय परसमय को जानने वाला साधु भट उत्तर दे सकता है कि प्रायः करके सर्वत्र यतियों के लिए स्नान वर्जित है क्योंकि यह काम को पैदा करने वाला है। अतः शान्त-दान्त श्रमण स्नान नहीं करते हैं। इस प्रकार उभय दर्शनों का ज्ञान होने से योग्य उत्तर देने की योग्यता प्राप्त होती है इसलिए स्वदर्शन और परदर्शन के सिद्धान्तों का ज्ञान करना श्रमण साधु के लिए आवश्यक है।
- भावशः-साधु को इतना निपुण और व्यवहार कुशल होना चाहिए कि वह व्यक्ति की चेष्टा, हाव-भाव और अंग-संचालन द्वारा उसके चित्त में रहे हुए आशय को समझ सके। प्रायः करके शरीर की चेष्टाएँ मन के अन्तर्गत भावों को व्यक्त कर देती हैं उन्हें चतुर पुरुष समझ लेते हैं। साधु के लिए यह बात आवश्यक है कि वह दूसरों के अभिप्राय को बाह्य चेष्टाओं से जान सके कि इसके भाव किस तरह के हैं।
परिग्गहं श्रममायमाणेः-साधु किसी प्रकार के परिग्रह पर अपनी ममता नहीं रखता है। उसे अपने शरीर से भी ममता नहीं होती तो अन्य पदार्थों से क्या ममता होनी चाहिए ? साधु संयम के निर्वाह के लिए वस्त्र-पात्रादि उपकरण रखते हैं परन्तु उन पर ममता नहीं रखते हैं इसलिए वह परिग्रह नहीं कहलाता क्योंकि आगम में मूर्छा को परिग्रह कहा गया है । अतः संयम के उपयोगी उपकरणों को रखते हुए भी साधु अपरिग्रही हैं। संयम के लिए आवश्यक उपकरणों के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के परिप्रह को साधु स्वीकार नहीं करते हैं और मन से भी उसको स्वीकार करने की भावना नहीं रखते हैं।
A
___ कालानुष्ठायी:-श्रमण समय समय पर सभी कियाएँ करता है । जिस काल में जो क्रिया करनी होती है उसको उसी समय करना मुनि-धर्म है। यह शंका होती है कि 'कालन्ने' इस विशेषण से ही 'कालानुष्ठायी' का अर्थ निकल जाता है तो यह विशेषण अलग क्यों दिया गया ? इस शंका का समाधान यह है कि "कालन्ने" में तो समय को जानने वाला ऐसा ज्ञपरिज्ञा रूप कथन किया गया है और 'कालानुष्ठायी' इस विशेषण से क्रिया करने वाला ऐसा आसेवन परिज्ञा का कथन किया है। अर्थात् योग्य समय पर अग्य क्रिया करना यह मुनि का कर्त्तव्य है।
अप्रतिक्षः-साधु का यह धर्म है कि वह किसी प्रकार की प्रतिज्ञा (निदान ) न करे क्योंकि प्रायः करके निदान कषायों के उदय से हुआ करता है। जैसे क्रोध के उदय से स्कन्दाचार्य ने अपने शिष्य को यन्त्र (घाणी) में पीलने के कारण सेना, वाहन, राजधानी सहित पुरोहित को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की। मान के उदय से बाहुबलि ने प्रतिज्ञा की कि यद्यपि मेरे छोटे भाई केवलज्ञानी है और मैं छद्मस्थ हूँ तो भी मैं छोटे भाइयों को कैसे नमस्कार करूँ ? अतः जब तक मुझे केवल-ज्ञान न हो जाय वहाँ तक मैं उनके पास नहीं जाऊँगा । इसी तरह माया का उदय होने से मल्लिनाथ स्वामी के जीव ने पूर्वभव में दूसरे साधुओं से कपट करके स्वयं उपवास आदि की प्रतिज्ञा की । लोभ के उदय से कितने ही प्राणी परमार्थ
For Private And Personal