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प्रथम अध्ययन सप्तमोद्देशक ]
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बाले सुख-दुःखों का बराबर निदान कर सकता है । जो बाहर के जीवों को होने वाले सुख-दुःखों को 1 बराबर समझ सकता है वही अपने सुख दुःखों को बराबर समझ सकता है अतः अपने को और दूसरों को एक ही तुला पर तोलो । अर्थात् जैसे स्वयं सुखाभिलाषी होकर अपनी रक्षा करते हो वैसे ही दूसरों की भी करो । अपने को दुःख का वेदन होता है वैसे ही दूसरों को भी होता है यह समझो | ऐसा समझ कर ही जैनशासन में प्रव्रजित शान्ति के रस में निमग्न संयमी पुरुष, असंयमी जीवन की इच्छा तक नहीं करते हैं ।
विवेचन - "श्रात्मवत् सर्वभूतेषु" का कितना सत्य, शिव और सुन्दर स्वरूप प्रतिपादन किया है ! जो प्राणी अन्तःकरण पूर्वक यह समझ लेता है कि मेरा चैतन्य और दूसरे जीवों का चैतन्य एक समान है वह कदापि अपने कल्पित सुखों के लिए दूसरे जीवों को कष्ट नहीं पहुंचाता है। दूसरों को दुखी करके पाया हुआ सुख, सुख नहीं किन्तु सुखाभास - सुख की झूठी विडम्बना है। दूसरों को लूट कर एकत्रित किया हुआ धन सुख का साधन नहीं किन्तु भयंकर नरक का द्वार है । श्रतएव शान्ति एवं अनन्त सुख के अभिलाषी पुरुष, जीव हिंसा करके, दूसरों को पीड़ा पहुंचा कर कभी जीना पसन्द नहीं करते हैं ।
लमाणा पुढो पास, अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्यं समारभमाणे गरूवे पाणे विहिंसइ (५७)
रणे
संस्कृतच्छाया—लज्जमानान्पृथक् पश्य । अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः यदिदं विरूपरूपैः शनैः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशस्त्रं समारभमाणा अन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति ।
भावार्थ–सावद्य अनुष्ठान से शरमाते हुए कितने ही शाक्यादि भिक्षु कहते हैं कि हम अनगार हैं परन्तु फिर भी वे अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा इस वायुकाय का समारम्भ करते हुए वायुकाय की हिंसा करते हैं और साथ ही मच्छर आदि अनेक जीवों की घात करते हैं ।
विवेचन - वायुकाय की आकृति चक्षुः गोचर नहीं होने से उसकी सचेतनता सामान्य दृष्टि से श्रद्धेय नहीं होती अतः उसकी सचेतनता के प्रमाण देना आवश्यक है। निम्न प्रमाणों के द्वारा उसकी सजीबता सिद्ध होती है— जैसे देवता का शरीर चक्षु द्वारा नहीं दिखने पर भी चेतना वाला समझा जाता है। अर्थात् देवता अपनी वैक्रिय शक्तिद्वारा ऐसा रूप बनावे जो आँख से नहीं देखा जा सकता है तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह (देव शरीर) नहीं है और अचेतन है । इसी तरह वायु भी चक्षु का विषय नहीं है तो भी चैतन्य रूप है। तथा जिस प्रकार अंजनादि विद्या और मंत्रों से मनुष्य अन्तर्धान हो जाते हैं इससे वे अचेतन नहीं हो जाते हैं इसी तरह चक्षु से नहीं दिखने से वायु अचेतन नहीं हो जाती । वायु में चर्मचक्षुरूप नहीं है तदपि वायु वर्ण, गंध, रस और स्पर्शरूप है। कई नैयायिकादि वायु को रूप-रहित मानते हैं ( रूपरहितः स्पर्शवान् वायुः इति वचनात् ) परन्तु उसमें सूक्ष्म वर्णादि चतुष्क पाये जाते हैं। अनुमान से भी सिद्धि की जाती है-वायु चेतना वाली है, क्योंकि दूसरों के द्वारा प्रेरित किये बिना भी
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