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द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
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विवेचन - जो वोर सत्पुरुष अपने चीर्ण उपदेशों के द्वारा संसार के बन्धनों से जकड़े हुए अन्य पुरुषों को मुक्त करते हैं वे व्यक्ति अपने जीवन को ऐसा बनाते हैं जो दूसरों के लिए आदर्श उपस्थित करता है । इनके जीवन में ज्ञान और क्रिया का अनुपम सम्मिश्रण होता है । उनका जीवन - वस्त्र ज्ञान और सद्वर्तन रूपी ताने-बाने से बना हुआ होता है। विवेक और सदूवर्त्तन का संयोग दूषणों से बचाता है । जहाँ विवेक है और साथ ही तदनुकूल क्रियाएँ हैं वहां पाप फटक ही नहीं सकता है। ज्ञान और क्रिया के समन्वय से वह सभी प्रकार के बन्धनों से अलिप्त रहता है । जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त किया है परन्तु तदनुकूल उसका व्यवहार न हो तो वह ज्ञान सार्थक नहीं कहा जा सकता है। ज्ञान का अर्थ पुस्तकीय ज्ञान या अक्षर ज्ञान से ही नहीं है वरन् वही ज्ञान, ज्ञान है जो बन्धन से मुक्त करने में समर्थ हो । ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा का व्यवहार करने वाला कर्मों से लिप्त नहीं होता । सच्चा पण्डित अथवा ज्ञानी वही है जो कर्म - बन्धनों को दूर करने में निपुण हो तथा जो कर्मों के बन्धन से मुक्त होने के उपायों का अन्वेषणा करता हो । स्व-पर का कल्याण करने वाला ज्ञान विरतिफल वाला होता है। जिस ज्ञान का फल विरति रूप नहीं है वह ज्ञान मात्र पुस्कीय ज्ञान है और ऐसे पण्डित 'पोथे पण्डित' कहे जाते हैं ।
शंका – सूत्र में 'अणुग्धायणखेयन्ने' पद दिया गया है । इसी से कर्मप्रकृति के मूल और उत्तर भेदों को जानने वाला, चार प्रकार के बन्ध से मुक्त होने का उपाय ढूँढ़ने वाला कर्म की स्पृष्ट, बद्ध, निद्धत व निकाचित अवस्था और उससे छूटने के उपाय आदि के जानने वाले का भी ग्रहण हो जाता है तो "बन्धपमुक्खमन्नेसी” पद और क्यों दिया गया ? क्या इसमें पुनरुक्ति दोष नहीं है ?
समाधान - टीकाकार इसका समाधान करते हैं कि "अगुग्धायणखेयन्ने" इस पद से तो कर्मों को दूर करने का ज्ञान वाला होता है ऐसा कहा गया है और "बन्धमुक्खमन्नेसी ” इस पद से कर्मों को दूर करने के उपायों का आचरण करने वाला कहा गया है अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है । कर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर जो उससे दूर रहने के उपायों का अन्वेषण करता है वही पण्डित और बुद्धिमान है ।
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यहाँ पर शंका हो सकती है कि उपर्युक्त लक्षण सम्पन्न बुद्धिमान छद्मस्थ होता है या केवली ही हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि ऐसा बुद्धिमान छद्मस्थ होता है क्योंकि केवली में उक्त लक्षणनहीं पाये जाते हैं । केवली तो चार घनघाति कर्मों का क्षय कर चुके होते हैं अतः उन्हें कर्म - क्षय करने के उपायों का अन्वेषण करना नहीं पड़ता है। अतः ऐसे बुद्धिमान छद्मस्थ समझने चाहिए। केवली तो बद्ध
नहीं हैं और मुक्त भी नहीं है। चार प्रकार के घनघाति कर्मों का क्षय कर देने से वे बन्धन वाले नहीं कहे जाते तथा सवथा मुक्त भी नहीं कहे जा सकते क्योंकि भोपग्राही कर्म श्रवशिष्ट हैं अतः केवली साधक (कुशल) न तो बद्ध हैं और न मुक्त ही । वस्तुतः वे साधना में कृतकृत्य हो चुके हैं अतः बन्ध-मोक्ष का उनके लिए कोई प्रश्न नहीं रहता है।
से जं च आरभे जं च णार, ऋणारद्धं च न प्रारभे, छणं छणं परिरणाय लोगसन्नं च सव्वसो ।
संस्कृतच्छाया —–सः यच्चारभते यच्च नारभते, अनारब्धञ्च नारभते । क्षणं क्षणं परिज्ञाय लोकसंज्ञाञ्च सर्वशः ।
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