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अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक ]
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अचित्त भूमि और अचित्त काष्ठ पर मुनि अपने आपको स्थापित कर ले और चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दे, बालोचना प्रतिक्रमण करके, नवीन महाव्रतों का आरोपण करके, क्षमायाचना एवं क्षमाप्रदान करके, गुरुदेव की प्राज्ञा लेकर तथा मेरु की भांति निष्प्रकम्प बनकर अपने शरीर का सब प्रकार से ममत्व हटा ले । ऐसा दृढ़ अध्यवसाय बना ले कि अब से यह देह मेरा नहीं है।
___ इस स्थिति में रहते हुए यदि परीषह और उपसर्ग हों तो वह मुनि ऐसा विचारे कि ये परीषह मेरे शरीर में नहीं हो रहे हैं। अर्थात् शरीर ही मेरा नहीं है क्योंकि मैंने तो इसे छोड़ दिया है तो उसमें होने वाले परीषहों से मुझे पीड़ा क्यों होनी चाहिए, यह विचार कर उन्हें भलीभांति सहन करे । वह साधक परीषहों और उपसों को कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने का साधन मानता है अतः उन्हें अपरीषह ही मानकर सहन कर लेता है।
वह बुद्धिमान् साधक यह समझता है कि जब तक जीवन है तब तक परीषह-उपसर्ग आते ही हैं। इनसे घबराने की क्या आवश्यकता है ? संकटों और दुखों का नाम ही तो जीवन है । यह जानकर वह
आकुल-व्याकुल नहीं होकर उन्हें सहन करता है । अथवा वह यह समझता है कि ये परीषह और उपसर्ग अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक ही रहने वाले हैं । मेरा जीवन अब थोड़ा ही है । मैं जीर्ण-शीर्ण हो ही गया हूँ तो थोड़े समय तक होने वाले परीषहों और उपसगों से घबराने की क्या श्रावश्यकता है ? यह जानकर भी वह भलीभांति सब दुखों और वेदनाओं को सहन कर लेता है।
ऐसा साधक देह का भेद करने के लिए ही उत्थित होता है और वह काया के ममत्व को सर्वथा छोड़ देता है इसलिए उसे किसी प्रकार की असमाधि नहीं होती। वह संकटों में भी मेरु की तरह दृढ़ और निश्चल होता है । वह शरीर से भी निश्चल होता है और भावों से भी निश्चल होता है । अतः समाधिमरण से मरकर वह अपने जीवन-साध्य को सिद्ध कर लेता है । वह कृतार्थ हो जाता है।
भेउरेसु न रजिजा, कामेसु बहुतरेसु वि । इच्छालोभं न सेविजा धुववन्नं सपेहिया ॥२३॥ सासएहिं निमन्तिजा, दिव्वमायं न सरहे । तं पडिबुझ माहणे सव्वं नूमं विहूणिया॥२४॥ सव्वदे॒हिं अमुच्छिए, अाउकालस्स पारए।
तितिक्खं परमं णचा, विमोहन्नयरं हियं ॥२५॥ त्ति बेमि ॥ संस्कृतच्छाया–भिदुरेषु न रज्येत् कामेषु बहुतरेष्वपि ।
इच्छालोभं न सेवेत धुववर्ण संप्रेक्ष्य ॥२३॥ शाश्वतैर्निमन्त्रयेत् दिव्यमायां न श्रद्दधीत। तत् प्रतिबुध्यस्व माहनःसर्वे नूमं विधूय ।।२४।। सर्वाथेष्वमूछितः, आयुःकालस्य पारगः। तितिक्षां परमां ज्ञात्वा विमोहान्यतरं हितम् ॥२५।। इति ब्रवीमि। .
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