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धूत नाम षष्ठ अध्ययन
-द्वितीयोद्देशकः
प्रथम उद्देशक में कर्म-विपाक बताकर कर्म-रहित बनने के लिए गृहस्थाश्रम का त्याग करके प्रत्रजित होने का कहा गया है। प्रव्रज्या भी तभी सफल होती है जब कर्म-धुनन के लिए सतत जागृत रहा जाय । पूर्वग्रहों का त्याग और प्रव्रज्या-स्वीकार शक्ति के जागृत हुए बिना नहीं हो सकते । इसका कारण यह है कि अनन्त भवों के अभ्यास से जीव की परिणति जड़ पदार्थ की ओर अधिक रही है इस कारण जड़ में जैसे स्थिति-स्थापक अवस्था है वैसी ही स्थिति-स्थापक अवस्था जीव में पैदा हो गयी है । इसका नतीजा यह हुआ कि जीव में नवीन मार्ग, नवीन विचार और नवीन अन्वेषण के प्रति उत्साह नहीं रहा
और वह अपनी जैसी अच्छी-बुरी अवस्था में है उसी में पड़े रहने से संतोष मान लेता है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय यावत् तिर्यश्च पंचेन्द्रिय और असंज्ञी मनुष्य आदि के भवों में तो नवीन कुछ कर सकने का वातावरण नहीं होता और ऐसा करने की शक्ति भी नहीं होती लेकिन यह वर्त्तमान-प्राप्त मानव-देह और आर्य क्षेत्र तो ऐसे अनुकूल संयोग हैं कि जीव नवीन सर्जन कर सकता है । ऐसी बुद्धि और ऐसे ही पुरुषार्थ के लिए साधन सामग्री उसे प्राप्त हुई है । परन्तु स्थिति-स्थापकता के रूढ संस्कारों के कारण मानवसमुदाय का एक बड़ा भाग इसका लाभ नहीं उठाता है। वह जैसे कुल में, जैसी स्थिति में और जिस धर्म में जन्म लेता है उसी में रहकर परम्परागत संस्कारों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है। कुछ नवीन करने की तमन्ना उसमें नहीं होती । साधक को त्यागमार्ग में आने की भावना तभी होती है जब वह यह समझता है कि दुनियाँ जो चाह रही है और कर रही है उससे मुझे कुछ नवीन करना है । वह अपनी विवेकबुद्धि के अनुसार विचार करके त्यागमार्ग में जुड़ जाता है। त्यागमार्ग में आ जाने के बाद कैसा वर्ताव रखना चाहिए यह सूत्रकार इस उद्देशक में बताते हुए फरमाते हैं:
पाउरं लोगमायाए चइत्ता पुवसंजोगं हिचा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्मं अहातहा अहेगे तमचाइ कुसीला वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिजा, अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणि मुहुत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अवइन्ना चेए ।
संस्कृतच्छाया-आतुरं लोकमादाय त्यक्त्वा पूर्वसंयोगं हित्वा उपशमं, उषित्वा ब्रह्मचर्ये वसु अनुवसुर्वा ज्ञात्वा धर्म यथातथा अर्थक तं पालयितुं न शक्नुवन्ति कुशीलाः, वस्त्रं पतद्ग्रहं, कम्बलं, पादपुञ्छनक
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