Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रहतार अन्वयार्थ:-(किंचि) कञ्चन-कमपि श्रमणं माहनं वा (रूवेण) रूपेण स्वरूपेण -जुगुप्सिताऽवयवाङ्गाऽवयवोद्घाटनेन (ण अभिधारयामो) नलेव अमिधार. यामः-गर्हणावुद्धया नोद्घाटयामः किन्तु-(मदिहिमगं तु) स्वदृष्टिमार्ग तु-तदभ्यु. पगतं दर्शनं सिद्धान्तम् (पाउकरेगु) पादुकुम:-महाशयामः। मोक्षमार्गस्तु-आरि... एदि) आर्यः (सप्पुरिसेहि) सत्पुरु:-सत्तश्च ते पुरुषास्तैः सर्व-अधर्मदूरवत्तिमिः (इमे भग्गे) अयं मार्गः-सम्यग्दर्शनादिरूपः (अणुत्तरे) अनुत्तरः-न विद्यते उत्तरः अथवा माहन के 'स्वेण-रूपेण' रूप अथवा वेषकी 'ण अभिधारयामो -नाभिधारयाम:' निंदा नहीं करते हैं उसके आ अथवा उपांग की चुराई नहीं करते' किन्तु 'सदिहियग्गं तु-स्वाष्टमार्ग तु' केवल अपने दर्शनका मार्ग ही 'पाउंकरेनु-प्रानुष्कुर्मः' प्रकाशित कर रहे हैं 'इमे मग्गे-अयं मार्गः' यह सम्यक दर्शन आदिरूप मार्ग 'अणुत्तरे-अनुत्तरः' सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापर विरुद्ध न होने के कारण तथा जीवाजीवादि पदार्थ-तत्वों की यथार्थ प्ररूपणा करने के कारण अनुत्तर है, क्योंकि -यह 'आरिएहि-आर्यः' आर्य 'सप्पुरिसेहि-सत्पुश्वैः' सत्पुरुषों-सर्वज्ञों
के द्वारा 'अंजु किटिया-अञ्जः कीर्तितः' सरल कहा गया है॥१३॥ . ___अन्वयार्थ--आईक पुनः कहते हैं-हम किसी श्रमण या माहन के रूप या वेष की निन्दा नहीं करते। उसके अंग या उपांग की बुराई नहीं करते । केवल अपने दर्शन का मार्ग ही प्रकाशित कर रहे हैं। यह सम्यग्दर्शन आदि रूप मार्ग सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापरविरुद्ध न
मया मानना 'रूवेण-रूपेण' ३५ मथवा वेपनी 'ण अभिधारयामो-नाभि 'धारयामः' नि! ते नथी. तभन A1 24n Siगानी सुश तात!
नयी. ५२ 'सदिद्विमग्गंतु-स्वदृष्टिमार्गन्तु' 4 पाताना नना भाग 'पाकरे मु-प्रादुष्कुर्मः' प्रगट ४३ . 'इमे मग्गे-अयं मार्ग:' मा सभ्य
शन विगरे ३५ भाग 'अणुत्तरे-अनुत्तरः' सर्वोत्तम छ, अर्थात् पूर्वा५२ वि३६ ન હોવાથી તથા જીવ અજીવ વિગેરે તત્વોની યથાર્થ પ્રરૂપ કરવાથી અનુત્તર -सब छ, भ3 मा 'आरिएहि-आय:' माय 'सप्पुरिसेहि-सत्पुरुषैः सत्पु३॥ -सब जी द्वारा 'अंजू किट्टिया-अजुः कीर्तितः' स२८ ४अवाम मा छे. 1131
અન્વયાર્થ–-ફરીથી આદ્રક મુનિ કહે છે-કંઈ પણ શ્રમણ અથવા માહનના રૂપ અથવા વેષની નિંદા કરતું નથી. હું કેવળ અમારા શાસ્ત્રને માર્ગજ પ્રગટ કરું છું. આ સમગ્ર દર્શન રૂપ માર્ગ જ સર્વોત્તમ છે, અર્થાત્ તે પૂર્વાપર વિરૂદ્ધ ન હોવાના કારણે તથા જીવાદિ તત્વનું પ્રરૂપણ