Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताम्रसूत्रे उझिप - परि अर्थदण्डस्य कटुकलमिति विवेकमाकुर्वन्, 'बाले' 'वॉक:सदसद्विवेकविला जीवैः सह 'वेरस्१' वैरस्य 'आमागी भाइ' आमागी मात्रिसर्व भागी भवति 'अण्डादंडे' अनर्थदण्ड: निष्मयोजनदण्डः सः 'से जेहा नामए' तद्यथानाम 'केइ पुरिसे' कश्चित् पुरुषः 'जे इमे यारा पणा भवति' ये इमे स्थावराः माणाः पृथिव्यादयो भवन्ति 'तंज' तथा 'इक्काडाइना' इक्काडादि वनस्पतिविशेषस्येय संज्ञा, 'कडिगाड वा' कठिनादि व 'जंतुगाह वो" जन्तुकादि - ते वनस्पतिविशेः 'मोकवावा' मुस्तकादि व 'तणइ ' तृणादि व 'कुपाइ वा कुशादि व 'कुछगाइ वा' कुच्छकादि व 'पागाइ ना पत्रकादि of 'पलालाइ वा' पालादि त्र 'ते णो पुत्तपोसणार' ते नो पुत्रो णाय तांस्तान्पूर्वोपदर्शितस्थावर कावान् यान् हन्ति नो ने पुत्रपोषणाय पुत्रपदमुपलक्षणकं तेन सर्वेषां ज्ञातिपरिवराणां सग्रहः, 'णो पोसणाएं' नो पशुपपण 'णो आगारपरिवृडणार नो आगारपरिवृद्धये 'णो समणमाहण
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उपद्रवकारी, अनर्थदंड के कटुकफल को न समझने वाला वह मन्दबुद्धि जीवों के साथ होने वाली शत्रुना का भागी होता है, निरर्थक ही बेर का भाजन घनता है ।
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और यह जो पृथिवी आदि स्थावर प्राणी है, जैसे इक्कड, कठिन तथा' जन्तुक नामक वनस्पतियां, मोथा, तृग, कुश, कुच्छरु, पर्यक, पलाल, इन वनस्पतियों का पुत्र का पोषण करने के लिए हनन नहीं करता है, 'यहां पुत्र शब्द उपलक्षग है, उससे सभी ज्ञानि-परिवार आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए' न पशुमों का पोषण करने के लिए हनन करता है, ने घर को बढाने के लिए, न श्रमणमाहन के पोषण के लिए, न अपने शरीर की रक्षा के लिए हनन करता है, वह निष्प्र
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ફળને ન સમજવા વાળા, તે મંદ બુદ્ધિવાળા જીવાની સાથે થનારા શત્રુ પશુાના ભ'ગીદાર બને છે. નિરક જ વેરને પાત્ર બને છે.
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मा पृथ्वीय विगेरे स्थावर प्राथी छे, प्रेम-डि:-हिन -तथा भन्तु नामनी वनस्पतियो तथा भोथ', 'तृय, कुश, १२७५, ५०४, પક્ષાલ, આ વનસ્પતયેાનુ જેએ કુટુમ્બનુ પેષણ કરવા માટે હનન–વધ કરતા નથી, અહિયાં (કુટુંબ શબ્દથી સઘળા જ્ઞાતિ-પરિવાર વિગેરે સમજી देवा) न' 'शुभे ं पेष ४२ ननનં, શ્રમણુ કે મહનના પેષણુ માટે ન પેાતાના
४रे छे, न घर वधावा भटे, શરીરની રક્ષા માટે હનન