Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका हि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६११
अन्वयार्थ:-माकः पुनरपि गोशालकं कथयति-(वणिया) वणिजः (वित्तसिणो) वित्तैषिणो धनाभिकापिणो भवन्ति, तथा- (मेहुणसंपग.ढा) मैथुनसंप्रगाढा:-मैथुनेऽत्यन्तासक्तमानसा भवन्ति । (ते भोयणट्ठा वयंति) ते भोजनार्थं व्रजन्ति-वणिजो भोजनोपलव्ध्यै इतस्ततो भ्रमन्ति, तु-अमोऽस्मादेव कार णात् (कामेसु) कामेषु (अझोत्रचन्ना) अध्युपपन्ना:-कामाऽऽसक्ताः (प्रेमरसेसु) मेमरसेषु (गिद्धा) गृद्धाः (अणारिया) अनार्यास्ते इति (वय) वयम्-कथयामः। तान् पणिवृत्तीनिति ध्वनिः । तस्मिन्ननेकवारं क्रयविक्रयपचनपाचनादिके तथा परिग्रहे धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिके नि-निश्चयेन श्रिताः बद्धाः निःश्रिता वणिजो भवन्तीति ।।२२।। टीका-सुगमा ॥२२॥ 'वित्तसिणी मेहुणसंपगाढा' इत्यादि ।
शब्दार्थ-फिर से आद्रक मुनि गोशालक से कहते हैं-'वणियावणिज' व्यापारी जन 'वित्तलिगो-वित्तैषिणः' धन के अभिलाषी होते हैं। तथा 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसंप्रगाढाः' मैथुन में आसक्त होते हैं 'ते भोयणट्ठा वयंति-ते भोजनार्थ व्रजन्ति' वे ओजन के लिए इतस्ततः भ्रमण करते हैं 'कामेसु-कामेषु' जो कामभोगों में 'अज्झोववन्ना-अध्युपपन्ना' आसक्त होते हैं, तथा 'पेमर सेतु-प्रेमरसेषु' स्नेहरस में 'गिद्धा-गृद्धाः' आसक्त होते हैं, उनको 'अणारिया-अनार्याः' अनायें है ऐसा 'वयंतु-वयन्तु हम कहते हैं ॥२२॥ ____ अन्यधार्थ-आईक गोशालक से फिर करते हैं-व्यापारी जन धन के अभिलाषी होते हैं, एवं मैथुन में भी आसक्त होते हैं, वे भोजन
'वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा' त्यहि
शहाथ-Nथा माद्र मुनि ४ छ,-'वणिया-वणिज.' व्यापश्या 'वित्तेसिणो-वित्तैषिणः धन भावानी ४२७ वा लाय. तथा 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसप्रगाढाः' भैथुनमा मासहित पाहाय छे 'ते भोयणटा वयति. ते भोजनार्थ व्रजन्ति' तमाम भाटे ४ माम तम. म छ. 'कामेसु कामेषु' २मा भगोमा 'अझोववन्ना-अध्युपपन्नाः' मासरत जाय छ, तथा 'पेमरसेसु -प्रेमरसेपु' स्ने २समा 'गिद्धा-गृद्धाः' मासहित य छ तमान 'अणारिया-अनार्या.' मानाय तम 'वयं तु-वयन्तु' ममे तो डी छीस. १२२॥
અન્વયાર્થ–આદ્રક ગોશાલકને ફરીથી કહે છે કે-વ્યાપારી લેક ધનની * ઈચ્છા વાળા હોય છે તથા મિથુનમાં આસક્ત હોય છે. અને ભજન માટે