Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आद्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६३९ । न वियागरे छन्नपओपजीवी,
एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥३५॥" ।, छाया--जीवाऽनुभागं सुविचिन्त्य, आहार्यान्नविधेश्च शुद्धिम् । ..
___न व्यागृणीयाच्छन्नपदोपजीवी, एपोनुधर्म इह संयतानाम् ॥३५॥ ___ अभयार्थः-(जीवाणुभागं सुविचिंतयंता) जीवानुभाग मुविचिन्त्य अहंदु मताऽनुरागी सन् जीवपीडां सम्यगनुविचिन्त्य (अन्नविही य सोहिं आहारिया) अन्नविधेश्च शुद्धिमाहार्य-शुद्धमन्नं द्वाचत्वारिंशद्दोषरहितमाहारं स्वीकृत्य (छन्नपभोपजीवी न वियागरे) छन्नपदोपजीवी न व्यागृणीयात्-कपटजीविको भूत्वा,
'जीधानुभाग' इत्यादि।
शब्दार्थ--'जीवाणु भाग सुविचिंतयंता-जीवानुभागं सुविचिन्स्य' आहेत मत के अनुयायो जीवों के होने वाली पीडा को भली भांति विचार करके 'अन्नविहीय सोहिं आहारिया-अन्नविधेश्च शुद्धिम् आहार्य शुद्ध ययालीस प्रकार के दोषों से रहित आहार का ग्रहण करते हैं वे 'छन्नपओपजीवी न वियागरे-छन्न पदोपजीवी न व्यागृणीयात्' माया चारसे आजीविका नहीं करते और न कपटमय वचनों का उच्चारण करते हैं । इह संजयाणं एसोऽणुधम्मो-इह संयनानाम् एषोऽनुधर्मा' जिनशासन में संयमी पुरुषोंका यही धर्म है ॥३६॥ ____अन्वयार्थ--आर्हतमत के अनुयायी जीवों को होने वाली पीड़ा का भली भांति विचार करके शुद्ध-घयालीस प्रकार के दोषों से रहित आहार 13 , 'जीवानुभाग' त्याहि . , 'शहाय'-'जीवाणुभाग सुविचितयंता-जीवानुभाग सुविचिन्त्य' मात भतना मनुयायिमा छान थनारी पीडाना, सारी शते पियार ४शन, अन्न विही य सोहि आहारिया-अन्नविधेश्च शुद्धिम् आहार्य' शुद्ध ४२ मे ताजीस प्रारना होष विताना मारने अहएY छे. तमा ‘छन्नप ओपजीवी न वियागरे-छन्न दोपजीवी न व्यागृणीयान्' भायाय'२थी गावि भगता नथी भने ४५८युत वयानुयार ४२ता नथी. 'इइ संजयाण एसोणुधम्मो-इह संयतानाम् एषोऽनुधर्म' शासनमा सयभा ५३वानी मा म छे ॥3॥
અન્વયાર્થઆહંત મતના અનુયાયી છને થવાવાળી પીડાને સારી રીતે વિચાર કરીને શુદ્ધ-૪૨ બેતાલીસ પ્રકારના દેશે વિનાના આહારને