Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
६०२ .
सत्रहतार मलम्-गता च तत्थ अदुवा अगंता,
वियागरेज्जा समियासु पन्ने । . अणारिया दसणओ परित्ता,
इति संकमाणो ण उवति तत्थ ॥१८॥ छाया-गत्वा च तत्राऽथवाऽगत्वा, व्यागृणीयात्समतयाऽऽशुपक्षः।
अनार्या दर्शनतः परीता इति शङ्कमानो नोपैति तत्र ॥१८॥ अन्वयार्थ:--(आसुरान्ने) आशुपज्ञः (गंता) गया (तस्थ) तन-प्रश्नकर्तुः समीपम् (अदुवा) अथवा (अगंता) अगस्व प्रश्नकर्तुः समीपम् (वियागरेज्जा)
'गंता च तत्थ अदुवा अगंता' इत्यादि ।
शब्दार्थ--'आसुपन्ने-अशुपजा' सर्वज्ञ महावीर 'तत्व-तत्र' प्रश्न करनेवाले के समीप 'गंता-गत्या' जाकरके 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता-अगत्वा न जाकर भी 'समिया-समतया समभावसे 'विया. गरेज्जा-व्यागृणीयात्' धर्मका उपदेश अथवा प्रश्नों के उत्तर देते हैं। रागद्वेष से युक्त होकर कभी भी भाषण नहीं करते, 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य जन 'दसणओ-दर्शनात्' सम्यक्त्वसे 'परित्ता-परीना' भ्रष्टरहित होते हैं 'इति संकमाणो-इति गइमान:' ऐसी आशंका से 'तस्थ -तत्र' उनके पास अनार्य देशमें 'न उवेति-नोपैति' नहीं जाते हैं। भय के कारण न जाते हों ऐसा कहना उचित नहीं है ॥गा०१८॥
अन्वयार्थ-सर्वज्ञ महावीर स्वामी श्रोताओं के समीप जाकर 'ताव तत्य अदुवा अगता' त्या
शहाथ-'आसुपन्ने-आशुप्रज्ञ.' सर्प भावी२२वामी 'तत्थ-तत्र' प्रश्न ४२वापानी पांसे 'ग'ता-गत्वा' १७२ 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता आगत्वा' या विना ५५] 'समिया-समतया' समसाथी 'वीयागरेज्जा-व्यागृ. णीयातू' भनी पहेश अथवा प्रशोना उत्तरे। मापे छे रागद्वषथी युत थतमा साष ४२ता नथी. 'अणारिया-अनार्याः' मनाया । 'दसणओ -दर्शनात्' सभ्यत्पथी परित्ता-परीता' भ्रष्ट से है सभ्यत्व दिनाना हाय छ. 'तत्थ-तत्र' या तन्मानी पांसे मनाय शमा 'न उति-नोपैति' नता તથી, ભયના કારણે તેઓની સમીપે જતા નથી તેમ નથી. ૧૮
અન્વયાર્થ–સર્વજ્ઞ મહાવીર સ્વામી શ્રોતાઓની પાસે જઈને અથવા