Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतामसूत्र म अन्वयार्थ:---(णत्यि कोहे व माणे गा) नास्ति-न विद्यते क्रोधो वा-स्वपरा. मनोरमीतिलक्षणः, तथा-मानो गौं वा न विद्यते (णे सन्नं णिवेसए) नेवमी
शी संज्ञा-चुद्धि निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु-(अस्थि कोहे व माणे वा) अस्तिविद्यते एव क्रोधो वा मानो वा (एवं सन्नं णिवेसए) एवमीदृशीं संज्ञा-चुदि निवेशयेत् कुर्यादिति ॥२०॥
टीका-कोहे व क्रोधो वा 'माणे वा मानो या 'णस्थि' नास्ति 'एवं सन्नं' एवं संज्ञाम् 'ण णिवेसए' न निवेशयेत्-नैवं संज्ञा विवृणुपात् । किन्तु-'कोहेव माणे वा अत्यि' क्रोधो वा मानो वाऽस्ति एवं सन्नं णिवेसए' एवमेव संज्ञां निवेशयेतू-धारयेत् । क्रोधो मानश्च न सत्पदार्थ इति कैश्चिदमिहितः तन्न सयुक्तिका प्रत्यक्षेणाऽनुमानादिनाऽपि सिद्धयोरनयो निराकतुमशक्यत्वात् । माणसिद्धस्याऽपि
, अन्वयार्थ-क्रोध नहीं है अथवा भान नहीं है, इस प्रकार की घुद्धि नहीं धारण करना चाहिए किन्तु क्रोध और मान है, इस प्रकार की बुद्धि धारण करना चाहिए ॥२०॥
टीकार्थ-स्व और पर के प्रति अप्रीति होना क्रोध का लक्षण है। मान का अर्थ गर्व या अभिमान है। यह क्रोध और मान नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि रखना ठीक नहीं है, किन्तु क्रोध है और मान है, ऐसी ही बुद्धि रखना चाहिए। 'पिसी का कहना है कि क्रोध और भान को सत्ता नहीं है। उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्यों कि प्रत्यक्ष से और अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध क्रोध और मान का निराकरण करना संभव नहीं है। प्रमाण से सिद्ध वस्तु का भी अभाव मानने से जगत् में कोई
, અન્વયાર્થ—કાધ નથી, અથવા માન પણ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ કોઇ અને માને છે. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ धा२६] ४२वी नसे. ॥२०॥
- ટીકાર્થ–સ્વ અને પરના પ્રત્યે અપ્રીતિવાળા થવું તે કોઇનું લક્ષણ છે. માનને અર્થ ગર્વ અથવા અભિમાન છે, આ કોય અને માન નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી યોગ્ય નથી. પરંતુ કોય છે. અને માન छ; मेवी मुद्धि रावी न.
. કેઈનું કહેવું છે કે--ક્રોધ અને માનની સત્તા નથી, તેઓનું આ કથન ઠીક નથી. કેમકે-પ્રત્યક્ષથી અને અનુમાન વિગેરે પ્રમાણેથી સિદ્ધ એવા ક્રોધ અને મનનું નિરાકરણ કરવું સંભવિત થતું નથી પ્રમાણથી સિદ્ધ વસ્તુનો