Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 761
________________ ५०० सूत्रकृतास्ते अन्वयार्थः-(ढोए) लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकः (नस्थि) नास्ति, एवम् (अलोए) अलोको लोकभिन्ना नास्ति (एव) एवमीदृशीम् (सन्न) संज्ञां-बुद्विम् (ण णिवेसए) न निवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु (लोए अलोए वा) लोकोऽलोको वा (अत्थि) अस्तिविद्यते (एव) एवमीहशीम (सन्नं) संज्ञा-बुद्धिम् (निवेसए) निवेशयेत्-कुर्यादिति। टीका-भेदाऽभेदपक्षयोव्र्यवहारस्य समाधातुमशक्यत्वात् सर्वथा भेदाश्रयः हिमप अनाचारसेवनम् । सर्वथाऽभेदपक्षोऽपि अनाचार सेवनमेव । शेषमतिरोहिताथै व्याख्यातञ्च ॥११॥ 'लोए' लोकश्चतुर्दशरजयात्मकः-जीवाऽजीवादीनामाधारस्थानम् 'अलोए .वा' अलोको वा लोकातिरिक्तोऽलोकः, 'नत्यि' नास्ति एवं' एवमीहशीम 'सन्' संज्ञाम् ‘ण णिवेसए न निवेशयेत्-नास्ति लोको नास्त्यलोको वा ईधी बुद्धि न कुर्यात । किन्तु-'लोए अलोए वा लोकोऽलोको वा 'अस्थि' अस्ति-विद्यते एवं' एवम-ईशीम् 'सन्न' संज्ञा-बुद्धिम् 'निवेसए' निवेशयेत-लोकाऽलोकाठमाव. विषयकवौद्धवासनावासितां बुद्धि परित्यज्य तयोविविषयिणी बुद्धिमेव कुर्यात् । 'एवं-एवम्' इस प्रकारकी 'सन्नं-संज्ञाम्' बुद्धि 'निवेसए-निवेशयेत्' रखनी चाहिए ।११ १२॥ ___ अन्वयार्थ--लोक और अलोक नहीं है, ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिए, किन्तु लोक है और अलोक है इस प्रकार की बुद्धि रखनी चाहिए ॥११-१२॥ टीकार्थ-चौदह रज्जु परिमाणवाला तथा जीव अजीव आदि द्रव्यों का आधारस्थान लोक कहलाता है । लोक से अतिरिक्त जो आकाश है वह अलोक है । यह लोक और अलोक नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, किन्तु लोक और अलोक है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए । लोक एवं अलोक के अभाव के विषय में बौद्धों की जो मान्यता है, उसका पत्थि-अस्ति' विद्यमान छे. 'एव' 24। प्रमाणे नी 'मन्नं-संज्ञाम्' भुद्धि 'निवेसए -निवेशयेत्' रामवी स. ॥११-१२॥ અન્વયાર્થ–લેક અને અલક નથી એવી બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ પરંતુ લોક છે અને અલેક પણ છે, આ પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી જોઇએ. ૧૧-૧૨ ટીકા–ચૌદ રાજુ પરિમાણ-પ્રમાણવાળા તથા જીવ અજીવ વિગેરે દ્રનું આધાર સ્થાન લેક કહેવાય છે. તેથી અતિરિક્ત જે આકાશ છે, તે અલેક છે. આ લેક અને અલેક નથી. તેમ સમજવું ન જોઈએ. પરંતુ લોક અને અલેક છે, તેવી બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ. લેક અને અલકના અભાવના સંબંધમાં બૌદ્ધોની જે માન્યતાઓ છે, તેને ત્યાગ કરીને તેના

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