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अलंकारसर्वस्व]
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[अलंकारसर्वस्व
लंकारों को विभिन्न वर्गों में रखा गया है। पांच मुख्य वर्ग हैं—सादृश्यवर्ग, विरोधवर्ग, शृङ्खलावर्ग, न्यायमूलवर्ग ( तकन्यायमूल, वाक्यन्यायमूल एवं लोकन्यायमूल ) तथा गूढार्थप्रतीति वर्ग।
सादृश्यगर्भमूलक-इसके तीन उपविभाग हैं-भेदाभेदतुल्यप्रधान, अभेदप्रधान तथा भेदप्रधान । भेदाभेदतुल्यप्रधान के अन्तर्गत चार अलंकार हैं-उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय एवं स्मरण । अभेदप्रधान-इसके भी दो विभाग हैं-आरोपमूला तथा अध्यवसानमूला। प्रथमवर्ग में ६ अलंकार हैं-रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान्, उल्लेख एवं अपह्नति । द्वितीय वर्ग में उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति का समावेश किया गया है। सादृश्यमूलक भेद के अन्तर्गत औपम्यगर्भ अलंकार के अन्तर्गत १६ अलंकार हैं तथा इसके भी सात वर्ग हैं-क. पदार्थगत-तुल्ययोगिता एवं दीपक, ख. वाक्यार्थगत-प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त एवं निदर्शना, ग. भेदप्रधान-व्यतिरेक, सहोक्ति एवं विनोक्ति, घ. विशेषणविच्छित्ति-समासोक्ति, परिकर, ङ. विशेष्यविच्छित्ति-परिकरांकुर, च. विशेषणविशेष्यविच्छित्ति-श्लेष । अप्रस्तुतप्रशंसा, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, पर्यायोक्ति एवं व्याजोक्ति इसी वर्ग (गम्यौपम्य ) में हैं। विरोधगर्भ-विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, असंगति, विषम, सम, विचित्र, अधिक, अन्योन्य, विशेष, व्याघात । शृङ्खलाबन्धकारणमाला, मालादीपक, एकावली एव सार । तकन्यायमूलक-काव्यलिंग, अनुमान । वाक्यन्यायमूलक-यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्ति, परिसंख्या, अर्थापत्ति, विकल्प, समुच्चय एवं समाधि । लोकन्यायमूलक-प्रत्यनीक, प्रतीप, मीलित, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण एवं उत्तर । गूढार्थप्रतीतिमूलक-सूक्ष्म, व्याजोक्ति, वक्रोक्ति । इन अलंकारों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी अलंकार हैं जिन्हें किसी भी वर्ग में नहीं रखा गया है। वे हैं-स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, संसृष्टि, संकर तथा रस एवं भाव से सम्बद्ध सात अलंकार-रसवत्, प्रेयस्, ऊर्जस्वि, समाहित, भावोदय, भावसन्धि एवं भावशबलता । अलंकारसर्वस्व का यह वर्गीकरण चित्तवृत्ति की दृष्टि से किया गया है--तदेतेचित्तवृत्तिगतत्वेनालङ्कारा लक्षिताः। अ० स० पृ०२१४ । इसकी अनेक टीकाएँ हुई हैं जिनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका जयरथ कृत 'विमर्शिणी' है । टीकाओं का विवरण इस प्रकार है-१. राजानक अलक-इनकी टीका सर्वाधिक प्राचीन है। इसका उल्लेख कई स्थानों पर प्राप्त होता है, पर यह टीका मिलती नहीं। २. जयरथ-इनकी टीका विमर्शिणी' काव्यमाला में मूल ग्रन्थ के साथ प्रकाशित है। इनका समय १३ वीं शताब्दी का प्रारम्भ है। इनकी टीका आलोचनात्मक व्याख्या है जिसमें अनेक स्थानों पर रुय्यक के मत का खण्डन एवं मण्डन है । जयरथ ने अभिनवगुप्त के 'तन्त्रालोक' पर भी 'विवेक' नामक टीका की रचना की है। ३. समुद्रबन्ध-ये केरलनरेश रविवर्मा के समय में थे। इनका जन्म समय १२६५ ई० है। इन्होंने अपनी टीका में कय्यक के भावों की सरल व्याख्या की है। अनन्तशयन ग्रन्थमाला संख्या ४० से प्रकाशित । ४.विद्याधर चक्रवर्ती-इनका समय १४वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है । इनकी टीका का नाम 'संजीवनी' है। इन्होंने 'अलंकारसर्वस्व' की श्लोकबद्ध निष्कृष्टार्थकारिका' नामक अन्य टीका भी लिखी है। दोनों टीकाओं का संपादन डॉ० रामचन्द्र द्विवेदी ने किया है। प्रकाशक हैं मोतीलाल, बनारसीदास।