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अमरुक]
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[अमरक
दीपिका' नामक टीका भी अच्छी है। अमरुक-सम्बन्धी दो प्रशस्तियाँ प्राप्त होती हैं
भ्राम्यन्तु मारवग्रामे विमूढारसमीप्सवः । अमरुद्देश एवासी सर्वतः सुलभो रसः ॥ सुभाषितावली १२ अमरुककवित्वडमरुकनादेन विनिहृता न संचरति ।
शृङ्गारभणितिरन्या धन्यानां श्रवणविवरेषु ॥ सूक्तिमुक्तावली ४।१०१ एक किंवदन्ती के अनुसार अमरुक जाति के स्वर्णकार थे। ये मूलतः शृङ्गार रस के कवि हैं और इनका वास्तविक प्रतिपाद्य है शृङ्गार । कवि ने शृङ्गार रस के उभयपक्षों-संयोग एवं वियोग-का अत्यन्त हृदयग्राही एवं कलात्मक चित्र उरेहा है। 'अमरुकशतक' में श्रृङ्गार रस के विभिन्न अंगों-अनुभाव, नायक-नायिका आदि के सरस वर्णन प्रस्तुत किये गए हैं। कुछ विद्वानों ने यहाँ तक कह दिया है कि अमरुक ने न केवल नायक-नायिका भेदों का अपितु कामशास्त्र को तत्तत् नियम-सरणि को ध्यान में रखकर ही अपने मुक्तकों की रचना की है। पर, वास्तविकता ऐसी नहीं है। कवि ने स्वतन्त्ररूप से शृङ्गारी पदों की रचना की है जिनमें विभिन्न प्रेमिल भावों को इस प्रकार उपन्यस्त किया गया है कि उनमें नायिका भेदों एवं कामशास्त्रीय तत्वों का भी समावेश हो गया है। अमरुक ने तत्कालीन विलासी जीवन ( दाम्पत्य ) एवं प्रणय-व्यापार का सरस चित्र खींचा है, जिसे परवर्ती आचार्यों ने अपने लक्षणों के अनुरूप इन्हें देखकर लक्ष्य के रूप में उदाहृत किया है। कालान्तर में रति विशारद आचार्यों ने अमरुक के पद्यों में वात्स्यायन की साम्प्रयोगिक पद्धतियों को भी ढूँढ़ कर निकाल लिया। शृङ्गार के विविध पक्षों का सफल चित्र अंकित करने में अमरुक अपनी सानी नहीं रखते। इनकी तूलिका कलाविदग्ध चित्रकार की भांति चित्र की रेखाओं की सूक्ष्मता एवं भंगिमा का मनोरम रूप उपस्थित करती है। नख-शिख-वर्णन के लिए अल्प क्षेत्र के होने पर भी कवि ने नायिका के लावण्य का मनोहर चित्र खींचा है ।
शैली की दृष्टि से अमरुक ने प्रसादपूर्ण कला का निदर्शन कराया है ।
इनकी शैली कालिदास के समकक्ष होती हुई कलात्मकता के पुट से अधिक अलंकृत है। इनकी भाषा अभ्यासजन्य श्रम के कारण अधिक परिष्कृत एवं कलाकारिता और नकासी से पूर्ण है, जिसमें कालिदास की सहज स्वाभाविकता का प्राधान्य न होकर नागरताजनित लचक दिखाई पड़ती है। पद-पद पर सांगीतिक सौन्दर्य एवं भाषा की प्रौढ़ि के दर्शन इनके श्लोकों में होते हैं, जिनमें प्रवाह की कलकल ध्वनि तथा ध्वनि और नाद का समन्वय परिदर्शित होता है। एक उदाहरण-"दम्पत्योनिशि जल्पतोगुहशुकेनाकणितं यद्वचस्तत् प्रातगुरुसनिधी निगदतस्तस्यातिमात्रवधूः। कर्णालम्बित पद्मरागशकलं विन्यस्य चन्चूपुटे व्रीडार्ता विदधाति दाडिमफलव्याजेन वाग्बन्धनम् ॥" रात में बात करते हुए दम्पत्ति के वचनों को गृहशुक ने सुना और प्रातःकाल होते ही उसके गुरुजनों के निकट उन्हें जोर से दुहराने लगा। लज्जित वधू ने कान के लटके