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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
पूर्व और उत्तर काल में स्थिर रहे विना यह प्रतीति नहीं होती कि "मैं वही हूँ ।" यह प्रतीति होती अवश्य है अतः सिद्ध होता है कि आत्मा पूर्व और उत्तरकाल में स्थिर रहती है ।
एकान्त क्षणिकवाद में श्रात्मा का भवान्तर में जाना नहीं बन सकता । श्रात्मा को कालान्तर स्थायी माने बिना यह ज्ञान कैसे हो सकता है कि "मैं वही हूँ जो देव नारक आदि भावदिशाओं
भ्रमण करता है । इस क्षणिकवाद में स्वर्ग-नरक-धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि की व्यवस्था नहीं बनती। क्योंकि प्रथम क्षण में तो आत्मा अपनी उत्पत्ति में मग्न रहता है उस समय दूसरी क्रिया नहीं कर सकता और दूसरे हुए तो वह निरन्वय नष्ट हो जाता है, तो क्रियाओं का अवकाश कहाँ रहा ? यदि क्रिया कर भी ले तो उसके फल का भोग कैसे हो सकेगा ? क्योंकि प्रथम क्षण तो वह क्रिया करता है उसका फल तो अवान्तर क्षणों में होना सम्भव है; दूसरे क्षण में तो वह नष्ट हो जाता है तो उसका फल कौन भोगेगा ? यदि यह कहा जाय कि नष्ट होने वाला पदार्थ अपने समान ही दूसरे पदार्थ को पैदा करने के बाद नष्ट होता है तो कृत-नाश और अकृत-फलभोग का प्रसंगाता है। क्योंकि जिस आत्मा ने शुभाशुभ कर्म किया है वह तो उसका फल भोगे बिना ही नष्ट हो गया और जिसको फल भोगना पड़ा उसने वह कार्य किया ही नहीं । अतः कृतप्रणाश और अकृत-कर्म भोग का दोष आता है। तात्पर्य यह है कि एकान्त क्षणिक पक्ष में शुभाशुभ क्रियाओं की संघटना नहीं हो सकती । इसके बिना कर्म व्यवस्था और लोक व्यवस्था नहीं हो कती । अतः आत्मा को सर्वथा क्षणिक न मानकर परिणामी नित्य मानना चाहिए ।
सांख्य-दर्शन के मत से आत्मा श्रकर्त्ता है । यह युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता । जो जिस क्रिया का कर्त्ता नहीं होता वह उसके फल का भोक्ता कैसे हो सकता है ? सांख्यदर्शन आत्मा को कर्त्ता न मानकर भी, भोक्ता मानता है, यह योग्य नहीं प्रतीत होता । आत्मा को अकर्त्ता मानने पर वह फल का भोक्ला नहीं रहता है; इससे स्वर्ग-नरक आदि लोक नहीं बनते हैं और भवान्तर - संक्रमण घटित नहीं होता ।
तात्पर्य यह है कि जो आत्मा को भवान्तर में गमनागमन करने वाला, परिणामी नित्य, कर्त्ता और स्वदेह प्रमाण आदि लक्षणों से युक्त मानता है यही सच्चा आत्मवादी है । जो श्रात्मवादी है वही लोकवादी है । अर्थात् जो श्रात्मा को उक्त लक्षणों से युक्त मानता है उसके मत में ही लोक बन सकता है । लोक का अर्थ है-चतुर्दश राजु-प्रमाण आकाश-खण्ड, जिसमें जीवों का गमनागमन होता रहता है। इससे जीवों की बहुलता का प्रतिपादन होता है और आत्माद्वैतवाद का निरसन होता है । जो श्रात्मवादी है वह लोकवादी है क्योंकि वह संसार के कार्य-कारण भाव को जानता है । वह इहलोक और परलोक को मानता है ।
जो प्राणी आत्मवादी और लोकवादी है वही सच्चा कर्म-स्वरूप को जानने वाला कर्मवादी है । क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही कर्म बन्धन का कारण तथा श्रात्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्व भलीभांति अनुभव करता है । ऐसा व्यक्ति यह जान लेता है कि मिध्यात्व, श्रविरति, प्रमाद, कषाय, और योग 'के कारण जीव गति आदि योग्य कर्मों को ग्रहण करता है और बाद में विविध योनियों में उत्पन्न होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कर्म के कारण ही यह विविध और विचित्र संसार अनादिकाल से चल रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस कथन से काल, यदृच्छा, नियति, ईश्वर और श्रात्माद्वैतवादियों के कारण वाद का खण्डन होता है ।
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