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___पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
सामर्थ्यतें जाननां । बहुरि तीर्थकर सर्वज्ञ वीत रागकू तौ परमगुरु कहिये, अर इनिकी परिपाटीतैं चले आए गौतमादिक मुनि भये तिनिका नाम जिनवर वृषभ इस विशेषणमैं जनाया तिनिकू अपरगुरु कहिये; ऐसे परापर गुरुका प्रवाह जाननां ते शास्त्रकी उत्पत्ति तथा ज्ञान• कारण हैं । तिनिकू ग्रंथकी आदिवि नमस्कार किया ॥१॥ ____ आणु धर्मका मूल दर्शन है तातें दर्शन” रहित होय ताकू नहीं वंदनां, ऐसे करें हैं;गाथा-दंसणमूलो धम्मो उवइहो जिणवरेहि सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे देसणहीणो ण वंदिब्बो ॥२॥ छाया-दर्शनमूलो धर्मः उपदिष्टः जिनवरैः शिष्याणाम् ।
तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः॥२॥ अर्थ-जिनवर जे सर्वज्ञदेव तिन. शिष्य जे गणधर आदिक तिनिकू धर्म उपदेश्या है सो कैसा उपदेश्या है, दर्शन है मूल जाका ऐसा धर्म उपदेश्या है । सो मूल कहां कहिए—जैसैं मन्दिरकै नींव अथवा वृक्षकै जड़ तैसैं धर्मका मूल दर्शन है । तातें आचार्य उपदेश करें हैं जो हे सकर्णा ! कहिये पंडित सतपुरुषहौ ! तिस सर्वज्ञके कहे दर्शन मूल रूप धर्मकू अपनें काननिविर्षे सुनिकरि, अर जो दर्शनकरि रहित है सो बंदिबे योग्य नाही है, दर्शनहींन• मति बंदौ । जाके दर्शन नाही ताकै धर्म भी नाही, मूल बिना वृक्षकै स्कंध शाखा पुष्प फलादिक कहांतें होय, तारौं यह उपदेश है-जाकै धर्म नाही तिसतै धर्मकी प्राप्ति नाही, ताकू धर्मनिमित्त काहेळू बन्दिए, ऐसा. जाननां।