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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
गाथा-सुण्णहरे तरुहिहे उज्जाणे तह मसाणवासे वा।
गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा॥४२॥ संवसासत्तं तित्थं वचचइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिणभवणं अह वेझं जिणमग्गे जिणवराविति ॥४३॥ पंचमहव्ययजुत्ता पंचिंदियसंजया गिरावेक्खा। .
सज्झायझाणजुत्ता मुणिवर वसहा गिइच्छंति ॥४४॥ संस्कृत-शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा श्मशानवासे वा।
गिरिगुहायां गिरिशिखरे वा भीमवने अथवा वसतौ वा॥ स्ववशासक्तं तीर्थं वचश्चैत्यालयत्रिकं च उक्तः । जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विदन्ति ॥४३ पंचमहाव्रतयुक्ताः पंचेन्द्रियसंयताः निरपेक्षाः ।
स्वाध्यायध्यानयुक्ताः मुनिवरवृषभाः नीच्छन्ति॥४४॥ अर्थ—सूनां घर, वृक्षका मूल कोटर, उद्यान वन, मसाण भूमि, गिरिकी गुफा, गिरिका शिखर, भयानकवन, अथवा वस्तिका, इनिविर्षे दीक्षासहित मुनि तिष्टें ये दीक्षायोग्य स्थान हैं॥ ___ बहुरि स्वशासक्त कहिये स्वाधीन मुनिनिकरि आसक्त जे क्षेत्र तिनिमैं मुनिवर्स, बहुरि जहांतें मुक्ति पधारे ऐसे तौ तीर्थस्थान बहुरि वच चैत्य आलय ऐसा त्रिक जे, पूर्व उक्त कहिये आयतन आदिक परमार्थरूप, संयमी मुनि अरहंत सिद्ध स्वरूप तिनिका नामके अक्षररूप मंत्र तथा तिनिकी
(१) संस्कृत प्रतिमें 'सवसा' 'सतं' ऐसे दो पद किये हैं जिनकी संस्कृत स्ववशा 'सत्त्वं' इस प्रकार लिखी हैं ।
( २ ) वचचइदालत्तयं इसके भी दो ही पद किये हैं 'वचः' 'चैत्यालयं' इस
प्रकार।