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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
आगैं कहै है— जे ऐसे अरहंत जिनेश्वर के चरणनिकूं न मैं हैं संसारकी जन्मरूप वेलिकूं काटै है,
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गाथा - जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेलमूलं खर्णति वरभावसत्थेण ॥ १५३ ॥ संस्कृत - जिनवरचरणांबुरुहं नमति ये परमभक्तिरागेण । ते जन्मवल्लीमूलं खनंति वरभावशस्त्रेण ॥ १५३ ॥
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अर्थ – जे पुरुष परमभक्ति अनुरागकरि जिनवरके चरण कमलनिकूं नमैं हैं ते श्रेष्ठभावरूप शस्त्रकरि जन्म कहिये संसार सोई भई वोल ताका मूल जो मिध्यात्व आदि कर्म ताहि ख ै हैं खादि डारें हैं |
भावार्थ —अपनीं जो श्रद्धा रुचि प्रतीति ताकरि जिनेश्वर देवकुं मैं हैं ताका सत्यार्थस्वरूप सर्वज्ञ वीतरागपणांकूं जाणि भक्ति के अनुरागकरि नमस्कार करैं हैं, तब जाणिये सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ताका ये चिह्न है तातैं जाणिये याकै मिथ्यात्वका नाश भया, अब आगामी संसारकी वृद्धि याकै न होयगी - ऐसा जनाया है ॥ १५२ ॥
आगैं कहै है जो -जिनसम्यक्त्वकूं प्राप्त भया पुरुष है सो आगामी कर्मकरि न लिपै है;—
गाथा -जह सलिलेण ण लिप्पड़ कम लिणिपत सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पड़ कसायविसएहिं सप्पुरिसो १५४ संस्कृत - यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपः स्वभावप्रकृत्या | तथा भावेन न लिप्यते कृपाय विषयैः सत्पुरुषः १५४ अर्थ — जैसे कमलिनीका पत्र है सो अपने प्रकृतिस्वभावकरि जलकरि नांही लिपै है तैसैं सम्यग्दृष्टी सत्पुल्प है सो अपने भावकरि क्रोधादिक कषाय अर इंद्रिय विषय इनिकरि नांही लिपै है |