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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । १०५
क्षेपै तब यत्नपूर्वक क्षेपै है; ऐसें निष्प्रमाद वर्तें तब संयम शुद्ध पलै है तातैं पंचसमितिरूप प्रवृत्ति कही है । ऐसें संयमचरण चारित्रकी प्रवृत्ति कही ॥ ३७ ॥
अब आचार्य निश्चय चारित्रकं मनमैं धारि ज्ञानका स्वरूप कहै है; - गाथा - भव्वजणवोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं । गाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि ॥ ३८ ॥ संस्कृत - भव्यजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितं । ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि ॥ ३८ ॥
अर्थ — जिनमार्ग विषै जिनेश्वर देवनैं भव्यजीवनिके संबोधनके आर्थि जैसा ज्ञान अर ज्ञानका स्वरूप कया है तिस ज्ञान स्वरूप आत्मा है ताहि हे भव्यजीव ! तू जानि ॥ ३८ ॥
भावार्थ — ज्ञानकूं ज्ञानका स्वरूपकूं अन्यमती अनेक प्रकार कहैं हैं तैसा ज्ञान अर ऐसा स्वरूप ज्ञानका नांही है, जो सर्वज्ञ वीतराग देव भाषित ज्ञान अर ज्ञानका स्वरूप है सो निर्बाध सत्यार्थ है अर ज्ञान है सोही आत्मा है तथा आत्माका स्वरूप है तिसकूं जानि अर तिसमैं थिरता भाव करै परद्रव्यनितैं राग द्वेष न करै सो ही निश्चय चारित्र है, सो पूर्वोक्त महात्रतादिकी प्रवृत्तिकर इस ज्ञान स्वरूप आत्मा विषै लीन होना ऐसा उपदेश है ॥ ३८ ॥
आगैं कहै है जो ऐसा ज्ञानकरि ऐसें जानैं सो सम्यग्ज्ञानी है; - गाथा -- जीवाजीव विभत्ती जो जागड़ सो हवे सण्णाणी । रायादिदोसरहिओ जिणसास मोक्खमग्गुत्ति ॥ ३९॥
संस्कृत — जीवाजीवविभक्तिं यः जानाति स भवेत् सज्ज्ञानः । रागादिदोषरहितः जिनशासने मोक्षमार्ग इति ॥ ३९ ॥