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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २२७
तीन भवनके चूडामणि हैं मुकुटमणि हैं तथा तीन भवन मैं ऐसा सुख नांही ऐसा परमानंद अविनाशी सुख नांही, ऐसा परमानंद अविनाशी सुखकूं भोग हैं, ऐसे तीन भवन के मुकुटमणि हैं ॥
भावार्थ — शुद्ध भाव किये ज्ञानरूप जल पिये तृष्णा दाह शोष मिटै है तातें ऐसें कया है जो परमानंदरूप सिद्ध होय है ॥ ९३ ॥ आ भावशुद्धि अर्थ फेरि उपदेश करे है; --
गाथा -- दस दस दो सुपरीसह सहदि मुणी सयलकाल कारण । सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमुत्तूण ॥ ९४ ॥ संस्कृत - दश दश द्वौ सुपरीवहान् सहख मुने ! सकलकालं
कायेन ।
सूत्रेण अप्रमत्तः संयमघातं प्रमुच्य ॥ ९४ ॥
अर्थ — हे मुने ! तू दश दश दोय कहिये बाईस जे सुपरीषह कहिये अतिशयकार सहनें योग्य ऐसे परीवह तिनिकूं सूत्रेण कहिये जैसे जिनवचनमैं कहे तिसरीतिकार निःप्रमादी भया संता संयमका घात निवारिकरि अर तेरे कायकरि सदा काल निरंतर सहि ||
भावार्थ — जैसैं संयम न बिगडै अर प्रमादका निवारण होय तैसैं निरन्तर मुनि क्षुधा तृषा आदिक बाईस परीषह सहै । इनिका सहने का प्रयोजन सूत्र मैं ऐसा कया है जो इनके सहनेंतैं कर्मकी निर्जरा होय है अर संयमके मार्गतैं छूटनां न होय परिणाम दृढ़ होय है ॥ ९४ ॥
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आगे कहै है जो परीषह सहनें में दृढ़ होय तौ उपसर्ग आये भी दृढ़ रहै चिगै नांही, ताका दृष्टान्त कहै है; - गाथा - जहपत्थरो ण भिज्जर परिडिओ दीहकालमुकरण | ह साहू विण भिज्जइ उवसग्गपरीषहे हिंतो ॥९५॥
१ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' तह साहू ण विभिज्जइ ' ऐसा पाठ है 1