________________
अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १७५ आगैं कहै है जो-हे आत्मन् ! तू जल थल आदि स्थानक विषै सर्वत्र वस्या;गाथा-जलथलसिहिपवणंबरगिरिसरिदरितरुवणाइ सव्वत्थ ।
वसिओसि चिरं कालं तिहुत्रणमझे अभप्पवसो ॥२१॥ संस्कृत-जलस्थलशिखिपवनांवरगिरिसरिदरीतरुवनादिषु सर्वत्र
उषितोऽसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः॥२१॥ अर्थ—हे जीव ! तू जलवि, थल कहिये भूमिवि, शिखि कहिये अग्निविषै, तथा पवनवि, अंबर कहिये आकाश विषं गिरि कहिये 'पर्वतवि., सरित कहिये नदीवि., दरी कहिये पर्वतकी गुफावि., तरु कहिये वृक्षनिविर्षे, वननिवि. बहुत कहा कहिये सर्वही स्थानकनिविर्षे तीनलोकवि. बहुतकालपर्यन्त वस्या निवास किया; कैसा भया संताअनात्मवश कहिये पराधीन भया संता॥
भावार्थ-निज शुद्धात्माकी भावनाविना कमके आधीन भया तीन लोकमैं सर्व दुःखसहित सर्वत्र वास किया ॥ २१॥ ___ आ फेरि कहै है जो हे जीव ! तैं या लोकमैं सर्व पुद्गल भखे तौ हू तृप्त न भया;गाथा—गसियाई पुग्गलाई भुवणोदरवत्तियाई सव्वाई। .
पत्तोसि तो ण तित्तिं पुणरुत्तं ताई भुंजतो ॥ २२॥ संस्कृत-ग्रसिताः पुद्गलाः भुवनोदरवर्तिनः सर्वे ।
प्राप्तोऽसि तन्न तृप्ति पुनरुक्तान् तान् भुंजानः॥२२॥
१–मुदिम संस्कृत प्रतिमें 'पुणरुवं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'पुनाको' इस प्रकार है।