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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३३५
संस्कृत - येन रागः परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम् ।
तेनापि योगी नित्यं कुर्यात् आत्मनि स्वभावनाम् ७१ अर्थ —जा कारणकर परद्रव्यविषै राग है सो संसारहीका कारण है तिस कारणही करि योगीश्वर मुनि है ते नित्य आत्माहीविषै भावना करे हैं ॥
भावार्थ — कोई ऐसी आशंका करे जो — परद्रव्यविषै राग करे कहा होय है ? परद्रव्य है सो पर है ही, अपनैं राग जिसका भया सिसकाल है पीछें मिटि जाय है ताकूं उपदेश किया है--परद्रव्यसूं राग किये परद्रव्य अपनी लार लागे है यह प्रसिद्ध है बहुरि अपनें रागका संस्कार दृढ होय है तब परलोक तांई भी चल्या जाय है यह aौ युक्ति सिद्ध हैं; अर जिनागममैं रागतें कर्मका बंध कह्या तिसका उदय अन्य जन्मकूं कारण है ऐसें परद्रव्यविषै रागतैं संसार होय है; तातैं योगीश्वर मुनि परद्रव्यतें राग छोडि आत्माविषै निरन्तर भावना राखै है ॥ ७१ ॥
आगैं कहै है जो ऐसे समभावतैं चारित्र होय है;अनुष्टुप - विंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहसु य । सत्तूर्णं चैव वंधूणं चारितं समभावदो ॥ ७२ ॥ संस्कृत - निंदायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च । शत्रणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः ॥ ७२ ॥ अर्थ — निंदाविर्षे बहुरि प्रशंसाविर्षै बहुरि दुःखविषै बहुरि सुखविषै बहुरि शत्रूनिविषै बहुरि बंधु मित्रनिविषै समभाव जो समतापरिणाम रांगे द्वेष रहितपणां, ऐसे भावतैं चारित्र होय है ॥
भावार्थ —— चारित्रका स्वरूप यहु कया है जो आत्माका स्वभाव है सो कर्मके निमित्ततैं ज्ञानविषै परद्रव्यतैं इष्ट अनिष्ट बुद्धि होय
है,