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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १३३ आगँ विशेष कहै है;गाथा-तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो।
चउतीस अइसयगुणा होति हु तस्सह पडिहारा॥३२॥ संस्कृत-त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिकः भवति अर्हन् ।
चतुस्त्रिंशत् अतिशयगुणा भवंति स्फुटं तस्याष्ट प्रातिहार्याः अर्थ—गुणस्थान चौदह कहे हैं तिनिमैं सयोगकेवली नाम तेरहमां गुणस्थान है तिसविर्षे योगनिकी प्रवृत्तिसहित केवलज्ञानकरि सहित सयोगकेवली अरहंत होय है. बहुरि चौतीस अतिशय ते हैं गुण जाकै बहुरि ताकै आठ प्रातिहार्य होय हैं ऐसा तौ गुणस्थानकरि स्थापना अरहंत कहिये ॥
भावार्थ--इहां चौतीस अतिशय अर आठ प्रातिहार्य कहनें तैं तो समवसरणमैं विराजमान तथा विहार करता अरहंत है, बहुरि सयोग कहनेते विहारकी प्रवृत्ति अर वचनकी प्रवृत्ति सिद्ध होय है बहुरि केवली कहनेंतें केवलज्ञानकरि सर्व तत्त्वका जाननां सिद्ध होय है। तहां चौतीस अतिशय तौ ऐसैं-जन्मतें प्रगट होंय दश-मलमूत्रका अभाव १ पसेवका अभाव २ धवल रुधिर होय ३ समचतुरस्रसंस्थान ४ वज्रवृषभनाराच संहनन ५ सुंदररूप ६ सुगंधशरीर ७ भले लक्षण होय ८ अनंतवल ९ मधुरवचन १० ऐसैं दश । बहुरि केवलज्ञान उपजे दश होय-उपसर्गका अभाव १ अदयाका अभाव २ शरीरकी छाया पड़े नहीं ३ चतुर्मुख दीखै ४ सर्व विद्याका स्वामीपणां ५ नेत्र टिमकारै नहीं ६ शतयोजनसुभिक्षता ७ आकाशगमन ८ कवलाहार नाही ९ नख केश वटै नांही १० ऐसैं दश । बहुरि चौदह देवकृत-सकलार्द्धमागधी भाषा १ संकलजीवनिमैं मैत्रीभाव २ सर्व ऋतुके फळ फूल फलैं ३ दर्प