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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १८७
संस्कृत - एकैकांगुलौ व्याधयः षण्णवतिः भवति
जानीहि मनुष्यानां । अवशेषे च शरीरे रोगाः भण कियन्तः भणिताः ॥ अर्थ — इस मनुष्य के शरीरविषै एक एक अंगुल मैं छिन छिनवै रोग होय है तब कहो अवशेष समस्त शरीरविषै केते रोग कहै ऐसें जानि ॥ ३७॥ कहै है है जीव ! तिनि रोगनिका दुःख तैं सह्या;
गाथा - ते रोया विय सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं ॥ ३८ ॥ संस्कृत -- ते रोगा अपि च सकलाः सोढास्त्वया परवशेण
पूर्वभवे । एवं सहसे महायशः ! किं वा बहुभिः लपितैः ॥ ३८ ॥ हे महायश ! हे मुने ! तैं पूर्वोक्त सब रोगनिकूं पूर्वभवविषै तौ परवश सहे, ऐसे ही फेरि सहैगा, बहुत कहनेंकरि कहा ?
भावार्थ — यह जीव पराधीन हुवा सर्व दुःख सह है जो ज्ञान भावना करै अर दुःख आयाँ तासूं चिंगै नांही ऐसें स्ववारी सहै तौ कर्मका नाश कर मुक्त होजाय, ऐसें जाननां ॥ ३८॥
आर्गै कहै है जो - अपवित्र गर्भवास मैं भी वस्या —
गाथा - पित्तंतमुत्त फेफसका लिज्जयरु हिरखरिस कि मिजाले । उयरे वसिओसि चिरं नवदसमासेहिं पत्ते हिं ॥ ३९ ॥ संस्कृत – पित्तांत्रमूत्रफेफसयकुंद्रुधिरखरिसकृमिजाले । उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तैः || ३९ ॥ अर्थ — हे मुने ! तू ऐसे मलिन अपवित्र उदरकै विषै नव मास तथा दश मास प्राप्ति करि वस्या, कैसा है उदर जामैं पित्त अर आंतनि-..