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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १५१
सूत्र मैं तौ कया है नांही तिननैं कल्पित सूत्र बनाये हैं तिनि मैं कह्या है सो कालदोष है ।।
आर्गै फेरि कहै है :
गाथा – उवसग्गपरिसहसहा णिजणदेसेहि णिच्च अत्थे । सिल कट्ठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ॥ ५६ ॥ संस्कृत — उपसर्गपरीष हसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति । शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ॥५६॥ अर्थ-कैसी है प्रव्रज्या — उपसर्ग कहिये देव मनुष्य तिर्यञ्च अचेतनकृत उपद्रव अर परीषह कहिये दैवकर्मयोगतैं आये जे बाईस परीषह तिनिकूं समभावनितैं सहना जामैं ऐसी प्रव्रज्यासहित मुनि हैं ते जहां अन्य जन नांही ऐसा निर्जन वनादिक प्रदेश तहां सदा तिष्ठें हैं, तहां भी शिलातल काष्ट भूमितलविषै तिम्रै इनि सर्वही प्रदेशनिकूं आरोहणकरि बैठें सोर्बे, सर्वत्र कहनेंतैं वनमैं रहैं अर किंचित्काल नगर मैं रहैं तौ ऐसेही ठिकानें हैं |
भावार्थ - जैनदीक्षावाले मुनि उपसर्गपरीषह मैं समभाव रहैं अर जहां सोवें बैठें तहां निर्जन प्रदेश मैं शिला काष्ठ भूमि ही विषै बैठें सोवें, ऐसा नांही जो अन्यमतके भेषीकी ज्यों स्वच्छन्द प्रमादी रहैं, ऐसें जाननां ॥ ५६ ॥
आर्गै अन्य विशेष कहै है;
गाथा - पसु महिलसंदसंगं कुसीलसंगं ण कुगड़ विकहाओ । सज्झायझागजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५७ ॥
संस्कृत - पशुमहिलाषंढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५७॥