________________
अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
२४१
प्रासुकका भी संकल्प अर बाधा बहुत इनिकू आदि लेकरि ये उत्तरगुण हैं तिनिका पालनां भी भाव शुद्धकरि करनां । भावशुद्धि विना करै तौ तत्काल बिगडै अर फल किछू नाही तातै भाव शुद्ध करि करनेका उपदेश है। ऐसा तो न जाननां जो इनिका बाह्य करनां निषेधै है, ये भी करनें अर भाव शुद्ध करनां यह आशय है । अर केवल पूजालाभादिकै अर्थि अपनी महंतता दिखावनेंकै अर्थि करै तौ कछु फललाभकी प्राप्ति नांही है ॥ ११३॥
आगें तत्त्वकी भावना करनेका उपदेश करै है;गाथा-भावहि पढमं तचं विदियं तदियं चउत्थ पंचमयं ।
तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ॥११४॥ संस्कृत-भावय प्रथमं तत्त्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थ पंचमकम् ।
त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवगेहरम् ११४ अर्थ-हे मुने ! तू प्रथमतत्त्व जो जीवतत्त्व ताकू भाय, बहुरि द्वितीयतत्त्व जो अजीवतत्त्व ताकू भाय, बहुरि तृतीयतत्व जो आस्त्रवतत्त्व ताकू भाय, बहुरि चतुर्थतत्त्व जो बंधतत्व ताकू भाय, बहुरि पंचमतत्व जो संवरतत्व ताकू भाय, बहुरि त्रिकरण कहिये मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनाकरि शुद्ध भया संता आत्माकू भाय, कैसा है आत्मा आनादिनिधन है, बहुरि कैसा है त्रिवर्ग कहिये धर्म अर्थ काम इनिका हरनेवाला है ॥
भावार्थ-प्रथम जीवतत्त्वकी भावना तो सामान्य जीव दर्शन ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है ताकी भावना करनी पीचैं ऐसा मैं हूं ऐसैं आत्मतत्त्वकी भावना करनी, बहुरि दूसरा अजीवतत्त्व है सो सामान्य अचेतन जड है सो पांचभेदरूप पुद्गल धर्म अधर्भ आकाश काल है
अ० व० १६