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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
छूटि जाना होय है बहुरि धर्मात्मा पुरुषनिकुं कर्मके उदयके वश” धर्मः चिगते देखि तिनिकी थिरता न करनी सो अस्थितीकरण है याके होतें जानिये याकै धर्मः अनुराग नहीं अर अनुराग न होनां सो सम्यक्त्व मैं दोष है। बहुरि धर्मात्मा पुरुषनितें विशेष प्रीति न करनां सो अवात्सल्य है याके होते सम्यक्त्वका अभाव प्रगट सूचै है। वहुरि धर्मका माहात्म्य शक्तिसारूं प्रगट न करनां सो अप्रभावना है याकै होतें जानिये याके धर्मका महात्म्यकी श्रद्धा प्रगट न भई। ऐसैं ये आठ दोष सम्यक्त्वके मिथ्यात्वके उदयतें होंय है, जहां ये तीव्र होंय तहां तौ मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय जनावै है सम्यक्त्वका अभाव जनावै है, अर जहां किछु मंद अतीचार रूप होय तौ सम्यक्त्व प्रकृति नामा मिथ्यात्वकी प्रकृतिके उदयतें होय ते अतीचार कहिये तहां क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका सद्भाव होय है; परमार्थ विचारिये तव अतीचार त्यागनेही योग्य हैं । बहुरि इनिके होते अन्यभी मल प्रगट होय हैं तहां तीन तौ मूढता; देवमूढता, पाखंडमूढता, लोकमूढता । तहां देवमूढता तो ऐसैं जहां किछु वरकी वांछाकरि सरागीदेवनिकी उपासना करनां तिनिकी पाषाणादिविर्षे स्थापनाकरि पूजनां । बहुरि पाखंडमूढता ऐसैंजहां ग्रंथ आरंभ हिंसादिक सहित पाखंडीभेषी तिनिका सत्कार पुरस्कारादिक करनां । बहुरि लोकमूढता ऐसैं जहां अन्यमतीनिके उपदेश तथा स्वयमेव विना विचारे किछु प्रवृत्ति करने लगि जाय जैसैं सूर्यकू अर्घ देनां, ग्रहणविर्षे स्नान करना, संक्रांतिविधैं दान करना, अग्निका सत्कार करना, देहली घर कूवा पूजनां, गऊके पूंछ• नमस्कार करनां, गऊका मूत्रकू पीवनां रत्न घोडा आदि वाहन पृथ्वी वृक्ष शस्त्र पर्वत आदिकका सेवन पूजन करनां, नदी समुद्र
आदिकू तीर्थ मानि तिनिमैं स्नान करना, पर्वत” पडनां अग्निमैं प्रवेश करनां इत्यादि जाननां। बहुरि छह अनायतन हैं-कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र