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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका । ३८७ ___ अर्थ—जे” यह जीव विषयबल कहिये विषयनिकै वशीभूत हू वत्तै है तेरौं ज्ञानकू नाही जानै है बहुरि ज्ञानकू जानें विना केवलविषयनिविर्षे विरक्तमात्रहीकरि पूर्व बांधे जे कर्म तिनिका क्षय नाही करै है ॥
भावार्थ-जीवका उपयोग क्रमवर्ती है अर स्वस्थस्त्रभाव है यातें जैसा ज्ञेयकू जानै तिसकाल तिसतँ तन्मय होय वर्ते है तातें जेते विषयनिमैं आसक्त भया वत्” है तेतै ज्ञानका अनुभव न होय इष्ट अनिष्ट. भावही रहै, बहुरि ज्ञानका अनुभवन भये बिना कदाचित् विषयनिकू त्यागै तौ वर्तमानविषयनिकू तौ छोडै परन्तु पूर्व कर्म बांधे थे तिनिका तौ ज्ञानका अनुभवन भये विना क्षय होय नाही, पूर्व कर्मका बंधका क्षय करने में ज्ञानहीकी सामर्थ्य है, तातें ज्ञानसहित होय विषय त्यागनां श्रेष्ठ है, विषयनिकू त्यागि ज्ञानकी भावना करनां यही सुशील है ॥४॥ ___ आज ज्ञानका अर लिंगग्रहणका अर तपका अनुक्रम कहै है;गाथा—णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहणं ।
संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥५॥ संस्कृत-ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं ।
- संयमहीनं च तपः यदि चरति निरर्थकं सर्वम् ॥५॥
अर्थ-ज्ञान तो चारित्ररहित होय सो निरर्थक है, बहुरि लिंगका ग्रहण दर्शनकरि रहित होय सो निरर्थक है, बहुरि संयमकरि रहित तप होय तो निरर्थक है ऐसैं ए आचरण करै तौ सर्व निरर्थक है ॥ ___ भावार्थ- हेय उपादेयका ज्ञान तौ होय अर त्यागग्रहण न करै तौ ज्ञान निष्फल होय, यथार्थ श्रद्धान विना भेष ले तो निष्फल होय है, इन्द्रिय वश करनां जीवनिकी दया करनां यह संयम है या विनां कछू तप करै तौ आहिंसादिकका विपर्यय होय तब निष्फल होय; ऐसैं इनिका आचरण निष्फल होय है ॥५॥