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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २६५ आ याही अर्थ· दृढ करै है;गाथा-मिच्छत्तछण्णदिट्टी दुद्धीए दुम्मएहिं दोसेहिं ।
धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवोण रोचेदि ॥१३९॥ संस्कृत-मिथ्यात्वछन्नदृष्टिः दुधिया दुर्मतैः दोषैः ।
धर्म जिनप्रज्ञप्तं अभव्यजीवः न रोचयति ॥१३९॥ . अर्थ--अभव्यजीव है सो जिनप्रणीत धर्म है ताहि न रोचै है न श्रद्धै है रुचि न करै है, जातें कसा है अभव्यजीव दुर्मत जे सर्वथा एकान्ती तिनिके प्ररूपे अन्यमत तेही भये दोष तिनिकरि अपनी दुर्बुद्धिकरि मिथ्यात्वतें आच्छादित है बुद्धि जाकी॥ ___ भावार्थ-मिथ्यात्वके उपदेशकरि अपनी दुर्बद्धिकरि जाकै मिथ्या दृष्टि है ताकू जिनधर्म न रुचै है तब जाणिये यह अभव्यजीवके भाव हैं यथार्थ अभव्यजीवकू तौ सर्वज्ञ जाण है अर ये अभव्यके चिह्न है तिनितें परीक्षाकरि जानिये हैं ॥ १३९ ॥ ___ आनें कहै है जो ऐसे मिथ्यात्वके निमित्ततें दुर्गतिका पात्र होय है गाथा--कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडि भत्तिसंजुत्तो।
कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ॥१४०॥ संस्कृत-कुत्सितधर्मे रतः कुत्सितपाषंडिभक्तिसंयुक्तः। - कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगतिभाजनं भवति १४० ___भावार्थ-आचार्य कहै है जो-कुत्सित निंद्य मिथ्याधर्ममैं रत है लीन है, अंर जो पाषंडी निंद्यभेषी तिनिकी भक्तिसंयुक्त है बहुरि जो निंद्य मिथ्याधर्म सेवै मिथ्यादृष्टीनिकी भक्ति करै मिथ्या अज्ञानतप करै सो दुर्गतिहि पावै तातै मिथ्यात्व छोडनां यह उपदेश है ॥ १४० ॥