________________
अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १२९ . भी उतर नाही उलटा हिंसादिकतै पापकर्मरूप मल लागै है यारौं सागर नदी आदिकू तीर्थ माननां भ्रम है । जाकरि तिरिये सो तीर्थ है ऐसा जिनमार्गमैं कह्या है सो ही संसारसमुद्रतै तारनेवाला जाननां ॥ २७ ॥
ऐसें तीर्थका स्वरूप कह्या।
आगैं अरहंतका स्वरूप कहै है;गाथा—णामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया। . चउणागदि संपदिमे भावा भावंति अरहंतं ।। २८॥ संस्कृत-नाम्नि संस्थापनायां हि चसंद्रव्ये भावे चसंगुणपर्यायाः
___ च्यवनमागतिः संपत् इमे भावा भावयंति अर्हन्तम् २८ अर्थः-नाम स्थापना द्रव्य भाव ये चार भाव कहिये पदार्थ हैं ते अरहंतकू जनावैं हैं बहुरि सगुणपर्यायाः कहिये अरहंतके गुण पर्यायनिसहित बहुरि चउणा कहिये च्यवन अरआगति बहुरि संपदा ऐसे ये भाव अरहत• जनावै है ॥
भावार्थ-अरहंत शब्दकरि यद्यपि सामान्य अपेक्षा केवलज्ञानी होय ते सर्वही अरहंत है तथापि इहां तीर्थकरपदकू प्रधानकरि कथन करिये है तातें नामादिककरि जनावनां कह्या है । तहां लोकव्यवहारमैं नाम आदिकी प्रवृत्ति ऐसे है जो जा वस्तुका नाम होय तैसा गुण न होय ताकू नामनिक्षेप कहिये । बहुरि जिस वस्तुका जैसा आकार होय तिस आकार ताकी काष्ट पाषाणदिककी मूर्ति बनाय ताका संकल्प करिये ताकू स्थापना कहिये । बहुरि जिस वस्तुकी पहली अवस्था होय
-संस्कृत सटीक प्रतिमें 'संपदिम' ऐसा पाठ है। २-'सगुणपञ्जाया' इस पदकी 'स्वगुणपर्यायाः' ऐसी संस्कृत मुद्रित संस्कृत प्रतिमें है।
अ० व. ९