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पंडित जयचंद्री छावड़ा विरचित
पाय अरहंत भये तिनिने यथार्थ श्रमणका मार्ग प्रवर्तीया अर तिस लिंगकू साधि सिद्ध भये; ऐसैं अरहंत सिद्ध तिनिकू नमस्कारकरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करी है ॥१॥
आगे कहे है जो–लिंग बाह्यभेष है सो अंतरंगधर्मसहित कार्यकरी है;-- गाथा-धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती ।
जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्यो ॥२॥ संस्कृत--धर्मेण भवति लिंगं न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः ।
जानीहि भावधर्म किं ते लिंगेन कर्त्तव्यम् ॥२॥ अर्थ-धर्मकरि सहित तो लिंग होय है बहुरि लिंगमात्रहीकरि धर्मकी प्राप्ति नहीं है, ता” हे भव्यजीव ! तृ भावरूप धर्म है ताहि जांनि अर केवल लिंगहीकरि तेरै कहा कार्य होय है, कछू भी नाही ।।
भावार्थ-इहां ऐसा जानो जो-लिंग ऐसा चिह्नका नाम है सो बाह्य भेष धारै सो मुनिका चिह्न है सो ऐसा चिह जो अंतरंग वीतराग स्वरूप धर्म होय तौ ता सहित तौ यह चिह्न सत्यार्थ होय है अर तिस वीतरागस्वरूप आत्माका धर्म विना लिंग जो वाह्य भेष तिस मात्रकरि धर्मकी संपत्ति जो सम्यक् प्राप्ति सो नाही है, तातै उपदेश किया है जो अंतरंग भावधर्म जो रागद्वेष रहित आत्माका शुद्ध ज्ञान दर्शन रूप स्वभाव सो धर्म है ताहि हे भव्य ! तू जांनि; अर इस बाह्य लिंग भेष मात्रकरि कहा कार्य है कछुभी नाही । बहुरि इहां ऐसाभी जाननां जोजिनमतमैं लिंग तीन कहै है-एक तौ मुनिका यथाजात दिगंबर लिंग १ दूजा उत्कृष्ट श्रावकका २ तीजा आर्यकाका ३ इनितीनही लिंगनि • धारि भ्रष्ट होय अर जो कुक्रिया करै ताका निषेध है। तथा अन्य