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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २१९
संस्कृत - यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्म भाविभवमथनम् ॥ ८२ ॥ अर्थ —— जैसैं रत्ननिविषै प्रवर कहिये श्रेष्ठ उत्तम वज्र कहिये हीरा हैबहुरि जैसैं तरुगण कहिये बडे वृक्षनिविषै प्रवर श्रेष्ठ उत्तम गोसीर कहिये - बावन चन्दन है तैसें धर्मनिवि उत्तम श्रेष्ठ जिनधर्म है, कैसा है जिनधर्म - भाविभवमथन कहिये आगामी संसारका मथन करनेवाला है यातेंमोक्ष होय है ॥
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भावार्थ — धर्म ऐसा सामान्य नाम तौ लोक मैं प्रसिद्ध है अर लोक अनेक प्रकारकरि क्रियाकांडादिक धर्म जांनि सेवै है. तहां परीक्षा किये मोक्षकी प्राप्ति करनेवाला जिनधर्मही है अन्य सर्व संसारके कारण हैं ते क्रियाकांडादिक संसारही मैं राखें हैं, कदाचित् संसार के भोगकी प्राप्ति करै: हैं तौऊ फेरि भोगनिमैं लीन होय तब एकेंद्रियादि पर्याय पावै तथा नरककूं पावै है ऐसें अन्यधर्म नाममात्र हैं तातैं उत्तम जिनधर्म जाननां ८२
आगैं शिष्य पूछें है जो - जिनधर्म उत्तम कला सो धर्मका कहा: स्वरूप है ? ताका स्वरूप कहै हैं जो धर्म ऐसा है;
गाथा - पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ! मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणी धम्मो ॥ ८३ ॥
संस्कृत — पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम् । मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः ॥ ८३॥ अर्थ — जिनशासनविर्षै जिनेंद्रदेव ऐसैं- कया है जो पूजा आदिक कै विषै अर व्रतसहित होय सो तौ पुण्य है बहुरि मोहके क्षोभकरि रहित जो आत्माका परिणाम सो धर्म है ॥
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भावार्थ — लौकिक जन तथा अन्यमती केई कहैं हैं जो पूजा आदिक शुभक्रिया तिनिविषै अर व्रतक्रियासहित है सो जिनधर्म है. सो