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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ — स्वर्गमैं हीन देव होय करि बडे ऋद्धिधारी देवकै अणिमादि गुणकी विभूति देखै तथा देवांगना आदिका बहुत परिवार देखे तथा आज्ञा ऐश्वर्य आदिका माहात्म्य देखे तब मन मैं ऐसें विचारी जो मैं पुण्यरहित हूं ये बड़े पुण्यवान है जिनिकै ऐसी विभूति माहात्म्य ऋद्धि है ऐसे विचार तैं मानसिक दुःख होय है ॥ १५ ॥
आगे कहै है जो अशुभ भावनातैं नीच देव होय ऐसे दुःख पाँव है ऐसें कहि इस कथन संकोच है—
गाथा - चउविहविक हासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अयवाओ ।। १६ ।। संस्कृत - चतुर्विधविकथासक्तः मदमत्तः अशुभभावप्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तः असि अनेकवारान || १६ |
अर्थ — हे जीव ! तू च्यार प्रकार विकथाविषै आसक्त भया संता मदकरि मांता अशुभ भावनांहीका है प्रकट प्रयोजन जाकै ऐसा हो करि अनेकवार कुदेव पणांकूं प्राप्त भया ॥
भावार्थ —स्त्रीकथा भोजन कथा देशकथा राजकथा ऐसी च्यार विकथा तिनिविषै परिणाम आसक्त होय लगाया तथा जाति आदि अष्ट मदनिकरि उन्मत्त भया ऐसें अशुभ भावनाहीका प्रयोजन धारि अर अनेकवार नीचदेवपणांकूं प्राप्त भया तहां मानसिक दुःख पाया । इहां यह विशेष जाननां जो विकथादिक करि तौ नीच देवभी न होय परन्तु इहां मुनिकूं उपदेश है सो मुनिपद धारि कछू तपश्चरणादिक भी करै अर भेषमैं विकथादिकमैं रक्त होय नीच देव होय है, ऐसे जाननां ॥ १६ ॥
आगैं कहै है जो ऐसैं कुदेवयोनि पाय तहांतैं चय जो मनुष्य तिर्येच होय तहां गर्भमैं आवै ताकी ऐसी व्यवस्था है ।