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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २१३
संस्कृत-भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादीन् च दोषान् त्यक्त्वा । पश्चात् द्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिंग जिनाज्ञया ॥ ७३ अर्थ — पहलै मियात्व आदि दोषनिकूं छोड़ि अर भावकरि अंतरंग नग्न होय एकरूप शुद्ध आत्माका श्रद्धान ज्ञान आचरण करे पीछें मुनि द्रव्यकरि बाह्य लिंग जिन आज्ञाकरि प्रगट करे यह मार्ग है |
भावार्थ-भाव शुद्ध हुवा विना पहले ही दिगंबररूप धारि ले तौ पीछें भाव बिगडै तब भ्रष्ट होय, अर भ्रष्ट होय मुनि भी कहाबो करे तौ मार्गकी हास्य करावे तातैं जिन आज्ञा यही है—भाव शुद्ध करि बाह्य मुनिपणां प्रगट करो ॥ ७३ ॥
आगे कहै है जो शुद्ध भावही स्वर्गमोक्षका कारण है, मलिनभाव संसारका कारण है;—–
गाथा -- भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणे भाववज्जिओ सवणो । कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ॥७४॥ संस्कृत - भावः अपि दिव्य शिवसौख्यभाजनं भाववर्जितः श्रमणः कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यगालयभाजनं पापः ॥७४॥
अर्थ — भाव है सो ही स्वर्ग मोक्षका कारण है बहुरि भावकरि वर्जित श्रमण है सो पापस्वरूप है तिर्यंचगतिका स्थानक है, कैसा है श्रमणकर्ममलकर मलिन है चित्त जाका ॥
भावार्थ- -भावकरि शुद्ध है सो तौ स्वर्ग मोक्षका पात्र है अर भावकरि मलिन है सो तिर्यंचगति मैं निवास करे है ॥ ७४ ॥ आगैं फेरि भावके फलका माहात्म्य कहै है;
गाथा -- खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला । चकहररायलच्छी लेब्भइ वोही सुभावेण ॥ ७५ ॥
१ — मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' लव्भेइ वोही ण भव्वणुआ ' ऐसा पाठ है ।