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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । ९१ भावार्थ-ये मूढजीव मिथ्यात्व अर अज्ञानके उदयकरि मिथ्यामार्गविर्षे प्रवर्ते है जातें मिथ्यात्व अज्ञानका नाश करनां यह उपदेशहै ॥१७॥ ___ आगैं कहै है जो सम्यग्दर्शन ज्ञान श्रद्धानकरि चारित्रके दोष दूरि होयहैं;गाथा-संम्मदंसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया ।
सम्मेण य सद्दहदि परिहरदि चरित्तजे दोसे ॥१८॥ संस्कृत-सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति च परिहरति चारित्रजान्
दोषान् ॥ १८ ॥ अर्थ—यह आत्मा सम्यग्दर्शन करि तौ सत्तामात्र वस्तुकू देखै है बहुरि सम्यगज्ञानकरि द्रव्य अर पर्यायनिकू जानैं है बहुरि सम्यक्त्वकार द्रव्य पर्याय स्वरूप सत्तामयी वस्तुका श्रद्धान करै है, बहुरि ऐसे देखनां जाननां श्रद्धान होय तब चारित्र कहिये आचरण ताविौं उपजे जे दोष तिनिकू छोडै है ॥ __ भावार्थ-वस्तुका स्वरूप द्रव्य पर्यायात्मक सत्ता स्वरूप है सो जैसा है तैसा देखै जानें श्रद्धान करै तब आचरण शुद्ध करे सो सर्वज्ञके आगम” वस्तुका निश्चयकरि आचरण करनां । तहां वस्तु है सो द्रव्य पर्याय स्वरूप है । तहां द्रव्यका सत्तालक्षण है तथा गुणपर्यायवानकू द्रव्य कहिये । बहुरि पर्याय है सो दोय प्रकार है; सहवर्ती, अर क्रमवर्ती । तहां सहवर्ती• गुण कहिये है, क्रमवर्तीकू पर्याय कहिये है। तहां द्रव्य सामान्यकरि एक है तौऊ विशेषकरि छह हैं; जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ऐसैं । तहां जीवकै दर्शनमयी चेतना तौ गुण है अर मति आदिक ज्ञान अर क्रोध मान माया लोभ आदि तथा नर नारक