Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 431
________________ ३८८ पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचित___ आगैं याही कहै है जो ऐसे किये थोडा भी करै तो बडा फल होय है;गाथा—णाणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ ॥६॥ संस्कृत-ज्ञानं चारित्रशुद्धं लिंगग्रहणं च दर्शनविशुद्धम् । संयमसहितं च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति ॥६॥ अर्थ-ज्ञानतौ चारित्रकरि शुद्ध, अर लिंगका ग्रहण दर्शन करि शुद्ध, संयमसहित तप ऐसैं थोडाभी आचरै तौ महाफलरूप होय है ॥ __ भावार्थ-ज्ञान थोडाभी होय अर आचरण शुद्ध करै तो बडा फल होय; बहुरि याथार्थश्रद्धापूर्वक भेषले तो बडाफल करे जैसैं सम्यग्दर्शनसहित श्रावकही होय तो श्रेष्ठ, अर तिस विना मुनिका भेषभी श्रेष्ठ नाही; बहुरि इन्द्रिसंयम प्राणसंयम सहित उपवासादिक तप थोडाभी करै तौ बडा फल होय, अर विषयाभिलाष अर दयारहित बडा कष्ट सहित तप करै तौऊ फल नाही; ऐसैं जाननां ॥ ६ ॥ __ आगें कहै है जो कोई ज्ञानकू जानिकरिभी विषयासक्त रहै है ते संसारहीमैं भ्रमैं हैं;गाथा-णाणं णाऊण णरा केई विसयाइभावसंसत्ता । हिंडंति चादुरगदिं विसएसु विमोहिया मृढा ॥ ७॥ संस्कृत--ज्ञानं ज्ञात्वा नराः केचित् विषयादिभावसंसक्ताः । हिंडते चतुर्गतिं विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ ७॥ अर्थ-केई मूढ मोही पुरुष ज्ञान• जानिकरिभी विषयनिरूप भावनिकरि आसक्त भये संते चतुर्गतिरूप संसारमैं भ्रमैं हैं जातै विषयनिकरि विमोहित भये फेरिभी जगतमैं प्राप्त होसी तामैं भी विषय कषायनिकाही संस्कार है । ह

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