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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
लोपनां अन्याय है । बहुरि स्वरूपके साधक अहिंसा आदि महाव्रत अर रत्नत्रयरूप प्रवृत्ति समिति गुप्तिरूप प्रवर्तनां, अर इनिविषै दोष लगे अपनी निन्दा गर्हादिक करनां, गुरुनिका दिया प्रायश्चित्त लेना, शक्तिसारू तप करना, परीषह सहनां, दशलक्षण धर्म विषै प्रवर्त्तनां इत्यादि शुद्धात्माकै अनुकूल क्रियारूप प्रवर्त्तनां, इनिमैं किछू रागका अंश रहे
।
तैं शुभकर्मका बंध होय है तौऊ सो प्रधान नांही जातैं इनिमैं प्रवर्त्तनें - वालेकै शुभकर्मके फलकी इच्छा नांही है तातें अबंधतुल्य है; इत्यादि प्रवृत्ति आगमोक्त व्यवहार मोक्षमार्ग है या मैं प्रवृत्तिरूप परिणामैं है तौऊ निवृत्तिप्रधान हैं तातैं निश्चय मोक्षमागमैं विरोध नांही है । ऐसैं निश्चयव्यवहारस्वरूप मोक्षमार्गका संक्षेप है, याहीकूं शुद्ध भाव का है तहां भी यामैं सम्यग्दर्शन प्रधानकरि कया है जातें सम्यग्दर्शनविना सर्व व्यवहार मोक्षका कारण नांही, अर सम्यग्दर्शनका व्यवहार मैं जिनदेवकी भक्ति प्रधान हैं, यह सम्यग्दर्शन के जनावनेकूं मुख्य चिह्न है तातें जिन - भक्ति निरंतर करनीं, अर जिनआज्ञा मांनि आगमोक्त मार्ग मैं प्रवर्त्तनां यह श्रीगुरुनिका उपदेश है, अन्य जिन आज्ञा सिवाय सर्व कुमार्ग हैं तिनिका प्रसंग छोडनां, ऐसे करे आत्मकल्याण होय है ॥
छप्पय ।
जीव सदा चिदभाव एक अविनाशी धारै, कर्म निमित पाय अशुद्धभावनि विस्तारै । कर्म शुभाशुभ बांधि उदै भरमै संसारै,
पावै दुःख अनंत च्यारि गतिमैं डुलि सारै ।। सर्वज्ञदेशना पायकै तजै भाव मिथ्यात्व जब ।
निजशुद्धभाव धरि कर्महरि लहै मोक्ष भरमै न तब ॥