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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
रत हैं रक्त हैं तत्पर हैं बहुरि भला है चरित्र जिनिकै, ते मोक्षमार्गविर्षे ग्रहण किये हैं ॥ ___ भावार्थ-जिनिमैं मोक्षमार्ग पाया ऐसा अरहंत सर्वज्ञ वीतराग देव अर तिसके अनुसारी बडे मुनि दीक्षा शिक्षा देने वाले गुरु तिनिकी तौ भक्तियुक्त होय, बहुरि संसार देह भोगसूं विरक्त होय मुनि भये तैसेंही जिनकै वैराग्यभावना है, बहुरि आत्मानुभवनरूप शुद्ध उपयोगरूप एकाग्रता सोही भया ध्यान ताविर्षे तत्पर है, बहुरि व्रत समिति गुप्तिरूप निश्चयव्यवहारात्मक सम्यक्त्वचारित्र जिनिकै पाईये है तेही मुनि मोक्षमार्गी है, अन्य भेषी मोक्षमार्गी नाही ॥ ८२ ॥
आगें निश्चयनयकरि ध्यान ऐसे करनां, ऐसैं कहै हैं;गाथा-णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो ।
सो होदि हु सुचरित्तो जोई सोलहइ णिव्वाणं ॥८३॥ संस्कृत-निश्चयनयस्य एवं आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः ।
सः भवति स्फुटं सुचरित्रः योगी सः लभते निर्वाणम् ॥ अर्थ--आचार्य कहै है जो निश्चयनयका ऐसा अभिप्राय है-जो आत्मा आत्महीविर्षे आपहीकै आर्थि भलैप्रकार रत होय सो योगी ध्यानी मुनि सम्यक्चारित्रवान भया संता निर्वाण• पावै है ॥ ___ भावार्थ-निश्चयनयका स्वरूप ऐसा है जो--एक द्रव्यकी अवस्था जैसी होय ताहीकू कहै । तहां आत्माकी दोय अवस्था;--एक तौ अज्ञान अवस्था अर एक ज्ञान अवस्था । तहां जेतें अज्ञान अवस्था रहे तेतै तौ बंधपर्यायकू आत्मा जानैं जो मैं मनुष्यहूं मैं पशुहूं मैं क्रोधीहूं, मैं मानीहूं, मैं मायावीहूं, मैं पुण्यवान धनवान हूं, मैं निर्धन दरिद्रीहूं, मैं राजाहूं, मैं रंकहूं, मैं मुनिहूं, मैं श्रावकहूं इत्यादि पर्यायनिविर्षे