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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३५१ संस्कृत-सम्यक्त्वे गुण मिथ्यात्वे दोषःमनसा परिभाव्य तत् कुरु
यत् ते मनसे रोचते किंबहुना प्रलपितेन तु ॥९६॥ अर्थ-हे भव्य ! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण अर मिथ्यात्वके दोष तिनि• अपने मन करि भावनाकरि अर जो अपना मनकू रुचै प्रियलागै सो कर, बहुत प्रलापरूप कहनेकरि कहा साध्य है। ऐसैं आचार्य उपदेश किया है॥ __ भावार्थ—ऐसैं आचार्य. कह्या है जो बहुत कहनेकरि कहा ? सम्यक्त्व मिथ्यात्वके गुण दोष पूर्वोक्त जांनि जो मनमैं रुचै सो करो । तहां ऐसा उदशेका आशय है जो-मिथ्यात्वकू छोडो सम्यक्त्वकू ग्रहण करो यारौं संसारका दुःख मेटि मोक्ष पावो ॥ ९६ ॥ ___ आनें कहै है जो मिथ्यात्व भाव न छोड्या तब बाह्य भेषर्ते कळू
नांही है;
गाथा-बाहिरसंगविमुक्को णा वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो ।
किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसमभावं ९७ संस्कृत-बहिः संगविमुक्तः नापि मुक्तः मिथ्याभावेन निग्रंथः।
किं तस्य स्थानमौनं न अपि जानाति आत्मसमभावं ९७ ___ अर्थ-जो बाह्य परिग्रह” रहित अर मिथ्याभावसहित निग्रंथ भेष धारण किया है सो परिग्रह रहित नाही है ताकै ठाण कहिये खड़ा होय कायोत्सर्ग करनेकर कहा साध्य है ? अर मौन धारै ताकरि कहा साध्य है ? जात आत्माका समभाव जो वीतराग परिणाम ताकू न जानै है ॥
भावार्थ--जो आत्माका शुद्ध स्वभावकू जांनि सम्यग्दृष्टी होय है । अर मिथ्याभावसहित परिग्रह छोडि निर्गन्थ भी भया है, कायोत्सर्ग करनां मौन धारनां इत्यादि बाह्य क्रिया करै है तौ ताकी क्रिया मोक्षमा