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अष्टपाहुडमें पोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३३३. ___ आनें कहै है जो विषयनितै विरक्त होय आत्माकू जानि करि भावै हैं ते संसारकू छोड़ें हैं;--- गाथा-जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया ।
छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥६८॥ संस्कृत-ये पुनः विषयविरक्ताः आत्मानं ज्ञात्वा भावनासहिताः।
त्यजन्ति चातुरंगं तपोगुणयुक्ताः न सन्देहः ॥६८॥ अर्थ—पुनः कहिये बहुरि जे पुरुष मुनि विषयनितै विरक्त होयकरि आत्माकू जांनि भावै हैं बारंबार भावनाकरि अनुभवें हैं ते तप कहिये बारह प्रकार तप अर मूलगुण उत्तरगुणनिकरि युक्त भये- संसारकू छोडें हैं, मोक्ष पाबैं हैं । __ भावार्थ-विषयनितें विरक्त होय आत्माकू जानि भावना करनी यातें संसारतें छूटि मोक्ष पावो, यह उपदेश है ॥ ६८ ॥
आगें कहै है जो परद्रव्यविर्षे लेशमात्रभी राग होय तो सो पुरुष. अज्ञानी है, अपनां स्वरूप जान्यां नाही; गाथा-परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो।
सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ ॥६९॥ संस्कृत-परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात् ।
सः मूढः अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ॥६९॥ ___ अर्थ--जा पुरुषकै परद्रव्यविषं परमाणुप्रमाणभी लेशमात्र मोहते रति कहिये राग प्रीति होय तौ सो पुरुष मूढ है, अज्ञानी है आत्मस्वभावतें विपरीत है।
भावार्थ--भेदविज्ञान भये पीछे जीव अजीवकू न्यारे जानैं तब परद्रव्यकू अपनां न जानैं तब तिसतै राग भी न होय, अर जो राग हाय तौ—जानिये—यानें आपा परका भेद जान्यां नाही, अज्ञानी है,