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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २११ आगैं ऐसैं भावलिंगी होनां यह उपदेश करै है;गाथा-पयडहिं जिणवरलिंगं आभितरभावदोसपरिसुद्धो। - भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियई ॥७॥ संस्कृत--प्रकटय जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः ।
भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति ॥७॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषनिकरि अत्यंतशुद्ध ऐसा जिनवरलिंग कहिये बाह्य निर्ग्रन्थलिंग प्रगटकरि, भावशुद्धि विनां द्रव्यलिंग विगडि जायगा जासैं भावमलिनकरि जीव है सो बाह्य परिग्रहविर्षे मलिन होय है ॥ __ भावार्थ-जो भाव शुद्धकरि द्रव्यलिंग धारै तौ भ्रष्ट न होय अर भाव मलिन होय तौ बाह्य भी परिग्रहकी संगतिकरि द्रव्यलिंगभी विगाडै तातै प्रधानपण भावलिंगहीका उपदेश है, विशुद्ध भाव विना बाह्य भेष धारणां योग्य नाही ॥ ७० ॥
आगैं कहै है जो भावरहित नग्न मुनि' है सो हास्यका स्थान है;गाथा--धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लुसमो।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ॥७१॥ संस्कृत-धर्मे निप्रवासः दोषावासः च इक्षुपुष्पसमः ।
निष्फलनिर्गुणकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण ॥७१॥ अर्थ-धर्म कहिये अपनां स्वभाव तथा दशलक्षणस्वरूप तिसवि जाका वास नांही सो जीव दोषनिका आवास है अथवा दोष जामैं वसैहै सो इक्षुके फूलसमानहै जाकै कळू फल नांही अर गंधादिक गुण नाही सो ऐसा मुनि तौ नग्नरूपकरि नटश्रमण कहिये नाचनेवाला भांडका स्वांग सारिखा है॥