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पंडित जयचंदनी छावड़ा विरचित
संयमी मुनि है, अन्य पाषाण आदिका मंदिरकू चैत्यगृह कहनां व्यवहार
आमैं फेरि कहै है;गाथा--चेइय वंध मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स ।
चेइहरं जिणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं ।। ९ ॥ संस्कृत-चैत्यं बंधं मोक्षं दुःखं सुखं च आत्मकं तस्य ।
चैत्यगृहं जिनमार्गे षडायहितंकरं भणितम् ॥९॥ अर्थ—जाकै बंध अर मोक्ष बहुरि सुख अर दुःख ये आत्माके होंय जाकै स्वरूपमैं होंय सो चैत्य कहिये जा चेतना स्वरूप होय ताहीकै बंध मोक्ष सुख दुःख संभवै ऐसा जो चैत्यका गृह होय सो चैत्यगृह है सो जिनमार्गविधैं ऐसा चैत्यगृह छह कायका हित करनेवाला होय सो ऐसा मुनि है सो पांच थावर अर त्रसमैं विकलत्रय अर असैनी पंचेंद्रियताई केवल रक्षाही करने योग्य है तातै तिनिकी रक्षा करनेका उपदेश करै है, तथा आप तिनिका घात न करै है तिनिका यही हित है, बहुरि सैनी पंचेंद्रिय जीव हैं तिनिकी रक्षा भी करै है रक्षाका उपदेश भी करै है तथा तिनिकू संसार” निवृत्तिरूप मोक्ष होनेका उपदेश करै है ऐसे मुनिराजकू चैत्यगृह कहिये ॥ __ भावार्थ-लौकिक जन चैत्यगृहका स्वरूप अन्यथा अनेक प्रकार मानें हैं तिनिकू सावधान किये हैं-जो जिनसूत्रमैं छह कायका हित करनेवाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है सो चैत्यगृह है, अन्यकू चैत्यगृह. कहनां माननां व्यवहार है । ऐसें चैत्यगृहका स्वरूप कह्या ॥ ९॥
आगैं जिनप्रतिमाका निरूपण करै है;