Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 422
________________ ~ - ~ अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका। ३७९ ___ भावार्थ-गृहस्थनितें तौ बार बार लालपाल राखै अर शिष्यनिसूं स्नेह बहुत राखै अर मुनिकी प्रवृत्ति आवश्यक आदि किछू करै नांही गुरुनिसूं प्रतिकूल रहै विनयादिक करै नांही ऐसा लिंगी पशुसमान है ताकू साधु न कहिये ॥१८॥ ___ आगैं कहै है जो लिंगधारि ऐसे पूर्वोक्त प्रकार प्रवर्ते है सो श्रमण नाही, ऐसा संक्षेपकरि कहे है;गाथा-एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वदे णिचं । बहुलं पि जाणमाणो भावविणहो ण सो समणो॥१९॥ संस्कृत-एवं सहितः मुनिवर ! संयतमध्ये वर्त्तते नित्यम् । बहुलमपि जानन् भावविनष्टः न सः श्रमणः ॥१९॥ अर्थ--एवं कहिये पूर्वोक्तप्रकार प्रवृत्तिसहित जो वतै है सो हे मुनिवर ! जो ऐसा लिंगधारी संयमी मुनिनिकै मध्यभी निरन्तर रहै है अर बहुत शास्त्रनिकू भी जानता है तोऊ भावकरि नष्ट है, श्रमण नांही है ॥ १९॥ ___ भावार्थ-ऐसा पूर्वोक्त प्रकारका लिंगी जो सदा मुनिनिमैं रहै है अर बहुत शास्त्र जाने है तौऊ भाव जो शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्ररूप परिणाम ताकरि रहित है, तातैं मुनि नाही, भ्रष्ट है, अन्य मुनिनिके भाव बिगाडनेंवाला है ॥ १९॥ ___ आगै फेरि कहै है जो स्त्रीनिका संसर्ग बहुत राखै सो भी श्रमण नाही है;गाथा-दसणणाणचरिते महिलावग्गम्मि देहि वीसहो । पासत्थ वि हु णियहो भावविणहो ण सो समणो २० संस्कृत-दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः । पार्श्वस्थादपि स्फुटं विनष्टः भावविनष्टः न सः श्रमणः॥

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